यदि मैं पुलिस अधिकारी होता पर निबंध If I Were A Police Officer Essay in Hindi

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If I Were A Police Officer Essay in Hindi

If I Were A Police Officer Essay in Hindi

If I Were A Police Officer Essay in Hindi 800 Words

आज के युग में एक पुलिस अधिकारी होना बहुत बड़ी बात समझी जाती है। वह इसलिए नहीं कि पुलिस अधिकारी बने व्यक्ति के पास कई प्रकार के अधिकार होते हैं। उन अधिकारों का उपयोग कर के वह जीवन और समाज को सुरक्षा तो प्रदान कर ही सकता है, समाजसेवा के अनेकविध कार्य भी सम्पादित कर-करा सकता है। वह हर प्रकार की अराजकता और अराजक तत्त्वों पर अंकुश लगाने में सफल हो सकता या हो जाया करता है। नहीं, आज का पुलिस अधिकारी इतना ही दूध का धुला नहीं हुआ करता कि जो कोई व्यक्ति वह सब बनना चाहे।

वास्तव में आज जो एक पुलिस अधिकारी होना बड़ी बात समझी जाती और लोग वैसा बनना चाहते हैं, वह इसलिए कि पुलिस अधिकारी एक कई प्रकार के अधिकार प्राप्त एक वर्दीधारी व्यक्ति होता है। सामाजिक-असामाजिक सभी तरह के तत्त्व उससे खूब दबते और उस का मान-सम्मान करते हैं। मोटी तनख्वाह के साथ-साथ उसकी दस्तूरी या ऊपर की आमदनी भी काफी मोटी होती है। यों असामाजिक तत्त्व उसे अपनी जेब में लिये घूमा करते हैं, पर प्रत्येक असामाजिक या अनैतिक कार्य से होने वाली आय का एक निश्चित हिस्सा नियमपूर्वक उसके पास पहुँचता रहता है। उसकी तरफ को कोई उँगली तक नहीं उठा सकता। जिसे चाहे बन्द कर-करवा दे, जिसे चाहे छुड़वा दे और छुट्टा घूमने दे। आप ही सोचिए, जब एक सब इन्स्पैक्टर रैंक का अधिकारी अपनी आलमारी में सैंकड़ों सूट, पत्नी की सैंकड़ों साड़ियाँ, दो-तीन लाख रुपये, बैठक में हर तरह का इम्पोर्टिड सामान रख सकता है; एक हवलदार के घर से बढ़िया बादामों की पूरी बोरी बरामद हो सकती है; तो फिर पुलिस के बड़े अधिकारी के पास क्या-कुछ नहीं होगा? इन्हीं कारणों से पुलिस अधिकारी होना बहुत बड़ी बात समझी जाती है।

लेकिन नहीं, मेरे मन में पुलिस अधिकारी बनने की बात तो बार-बार आती है; पर उसके पीछे ऊपर बताया गया कोई कारण कतई नहीं है। मैं अपने अधिकारों का दुरुपयोग कर सुविधा-सम्पन्न व्यक्ति कदापि नहीं बनना चाहता। मैं नहीं चाहता कि मेरा लड़का बुलेट मोटर साइकिल पर दनदनाता हुआ जिस किसी पर भी रोब गाँठता फिरे। मेरी लड़की कार में कॉलेज-स्कूल और पत्नी विदेशी कार में बाज़ार करने जाए। मैं यह भी नहीं चाहता कि समाज के इज्ज़तदार आदमी डर कर मुझे सलाम करें और बहुमूल्य उपहार भेजें। इसके साथ यह भी नहीं चाहता कि अराजक और गुण्डा-तत्त्व मुझे अपनी जेब में समझ या मान कर छुट्टे घूमते रह कर जन-जीवन को आतंकित करते फिरें। माफिया तत्त्व नशे के नाम पर जहर और मौत बेचकर अपनी आय का एक नियमित हिस्सा मेरे घर पहुँचाते रहें। नहीं, मैं यह भी कदापि नहीं देख और चाह सकता कि समगलर और काला-धन्धा करने वाले मुझे खुश करके या मेरे मातहत काम करने वालों को लुभा कर देश की अर्थ-व्यवस्था के साथ खुला खिलवाड़ करते रहें। सच, यदि मैं पुलिस-अधिकारी होता तो कम-से-कम अपने अधिकार क्षेत्र में तो ऐसा कुछ भी नहीं होने देता।

आज हमारे पुलिस के महकमे पर कर्त्तव्यहीनता, आम जनों की उपेक्षा, अराजक तत्त्वों को संरक्षण देने, अन्याय-अत्याचार को बढ़ने देने, जन-आक्रोश के समय सयम और बुद्धिमत्ता से काम न लेने, प्रदर्शन कर रहे जन-समूह पर बिना प्रयोजन और बिना चेतावनी दिए हुए, मात्र प्रतिक्रियावादी बन कर बदले की भावना से लाठी-गोली चलवा देने, निरीह स्त्रियों के साथ बलात्कार करने, निरपराध लोगों को थाने में बन्द करवा छोड़ने के लिए रिश्वत माँगने और न दे पाने पर झूठमूठ के अपराध कबूलवाने के लिए थर्ड डिग्री का प्रयोग करने, बनावटी मुठभेड़ दिखा कर बेगुनाह लोगों को मार डालने, चोरों-डकैतों को तो जान-बूझकर न पकड़ने, थाने में आम आदमियों द्वारा की गई शिकायतों की प्राथमिक रिपोर्ट बिना घूस खाए न लिखने जैसे जाने कितनी प्रकार की शिकायतें की जाती हैं, सुनने को मिलती हैं। मुझे पता है कि उनमें पूर्णतया सच्चाई है। अतः यदि मैं पुलिस-अधिकारी बन जाऊँ. तो लगातार परिश्रम करके, उचित-अनुचित का ध्यान रख और विवेक से काम लेकर इस प्रकार की सभी शिकायतों को अवश्य ही जड़-मूल से मिटा देता।

आजकल अक्सर होता क्या है कि पुलिस की वर्दी पहनते ही आदमी अपने-आप को खुदा, बाकी लोगों से अलग और जनता का स्वामी मानने लगता है; फिर चाहे वह वर्दी थाने के चपरासी या आम सिपाही की ही क्यों न हो। मैं यदि पुलिस-अधिकारी होता; तो इस हीनता-ग्रंथि को, इस प्रवृत्ति को जड़-मूल से ही उखाड़ फेंकता। पुलिस में आने वाले प्रत्येक छोटे-बड़े व्यक्ति को यह व्यावहारिक रूप से अच्छी तरह समझने का प्रयत्न करता कि वर्दी पहन लेने वाला व्यक्ति न तो विशिष्ट हो जाता है और न अन्य सामाजिक प्राणियों से अलग ही। पुलिस में होना उसी प्रकार की जन-सेवा का कार्य है जैसा कि किसी अन्य महकमे का हुआ करता है। कहने का तात्पर्य यह है कि मैं पुलिस अधिकारी बन कर उस समूची मानसिकता को बदलने का प्रयास करता कि जिसके कारण हमारे स्वतंत्र और जनंतत्री देश की पुलिस स्वतंत्र और सभ्य, सुसंस्कृत देशों जैसी नहीं लगती। वर्तमान मानसिकता-परिवर्तन बहुत ज़रूरी है।

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