Kabir Das in Hindi कबीर दास

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hindiinhindi Kabir Das in Hindi

Biography of Kabir Das in Hindi

हमारा देश भारत संत-महात्माओं की धरती के रूप में जाना जाता है। यहाँ ऐसे सैकड़ों संत हुए हैं, जिन्होंने अपने सरल जीवन और उच्च विचारों से लोगों को जीवन में अच्छाई अपनाने और बुराई से दूर रहने की प्रेरणा दी। ऐसे ही एक संत थे – कबीरदास। उनके जन्म के बारे में ठीक तरह से कुछ पता नहीं है। माना जाता है कि कबीर का जन्म सन् 1398 में हुआ था। उनके माता-पिता का नाम नीमा और नीरू बताया जाता है। कुछ विद्वानों का कहना है कि वे कबीरदास जी के असली माता-पिता थे, तो कुछ का मानना है कि नीरू नाम के एक जुलाहे को कबीरदास जी बचपन में एक सरोवर के किनारे पड़े मिले थे, जिन्हें उन्होंने अपनी पत्नी नीमा के साथ पाल-पोसकर बड़ा किया।

कबीर ने अपने एक दोहे में खुद को जुलाहे के रूप में पेश किया है। रामानन्द जी को उनका गुरु बताया जाता है। कबीरदास जी के जन्म आदि के बारे में भले ही अलग-अलग विद्वान् अलग-अलग राय रखते हों, लेकिन इस बात को लेकर सभी विद्वान् एकमत हैं कि कबीरदास जी ने हर संत-हर फकीर की अच्छी बातें अपनाईं और अपने दोहों के जरिए उन्हें आम जन तक पहुँचाया। कहते हैं कि कबीर के घर हमेशा साधु-संतों का जमावड़ा लगा रहता था।

जब कबीर का जन्म हुआ, तब हमारा समाज कई कुरीतियों से घिरा हुआ था। उन्होंने कर्मकांडों और कुरीतियों पर अपने सटीक और तर्कपूर्ण दोहों के ज़रिए खूब प्रहार किया। वे एक ईश्वर में विश्वास करते थे और छुआछूत, पाखंड, आडंबर इत्यादि को बिलकुल नहीं मानते थे। कबीर परमात्मा को मित्र और माता-पिता के रूप में देखते थे।

कबीरदास जी ने अपने दोहों की भाषा सरल और आसानी से समझी जा सकने वाली रखी, ताकि उनकी बात आम आदमी तक पहुँच सके। उन्होंने खुद कोई ग्रंथ नहीं लिखा, लेकिन उनकी शिक्षाओं को उनके शिष्यों ने लिख लिया। आज उनके इन्हीं वचनों के संग्रह को बीजक के नाम से जाना जाता है। इसके तीन भाग हैं-रमैनी, सबद और साखी। कबीरदास जी को शांतिमय जीवन पसंद था और वे अहिंसा और सत्य जैसे गुणों में विश्वास रखते थे। भले ही कबीरदास जी का देहांत वर्षों पहले हो गया हो, लेकिन अपने दोहों और शिक्षाओं के माध्यम से वे आज भी हमें रास्ता दिखा रहे हैं।

Essay on Kabir Das in Hindi

कबीरदास तुलसी के समान ही मध्यकाल के शीर्षस्थ भक्त और रचनाकार थे। हालाँकि कबीरदास ने अपने संदर्भ में लिखा है:

‘मसि कागद छूयो नहीं कलम गह्यो नहिं हाथ’

किन्तु इसके बावजूद भी कबीर की कविता, युगों की दूरी तय कर के आज हमारे समय और समाज का अपनी गहरी मानवीय आकांक्षा से आकर्षित कर रही है। इससे तत्कालीन समय और समाज में कबीरदास की कविता की प्रभावशीलता क्या रही होगी, इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती।

कबीरदास का अविर्भाव जिस युग में हुआ था, वह भारतीय समाज का ‘संक्राति-युग’ था। राजनैतिक रूप से भारतीय समाज मुसलमान शासकों के अधीन था और उसे मुस्लिम संस्कृति और सभ्यता की ओर से लगातार धार्मिक-सांस्कृतिक चुनौतियां मिल रही थीं। वहीं दूसरी तरफ, भारतीय समाज नित् नये धार्मिक संप्रदाया की बाढ़ को निर्मूक भाव से देख रहा था। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस प्रकार के धार्मिक संप्रदायों के संदर्भ में ठीक ही लिखा: “भक्ति, प्रेम आदि हृदय के प्रकृत भावों को उनकी अंतस्साधना में कोई स्थान न था।” इसके अतिरिक्त भेदभाव, छुआछूत, धार्मिक संकीर्णता, बाह्य आडंबर, अर्थ-शून्य कर्मकांड़ आदि अनेक तत्कालीन समाज की ज्वलंत वास्तविकताएं थीं, जिनका समाहार भक्त-कवि कबीरदास ने अपनी काव्य-साधना के माध्यम से किया।

कबीरदास का जन्म सन् 1456 में हुआ था। जिसका संकेत निम्नांकित पंक्तियों में मिलता है।

चौदह सौ छप्पन साल गए, चंद्रवार एक ठाठ भर।
जेठ सुदी वरसाइत की, पूरन मासी प्रकट भए।।

कबीरदास के जन्म के संबंध में एक किवदंती प्रसिद्ध है। जिसके अनुसार कबीर का जन्म एक विधवा ब्राह्मणी की कोख से हुआ था, जिसने लोक-लाज के भय से बालक कबीर को काशी के लहरतारा नामक तालाब के किनारे फेंक दिया था। वही बालक कबीर, कालांतर में नीमा-रीरू नामक एक जुलाहे दंपति की स्वच्छ स्नेहाच्छाया में पालित-पोषित हुआ।

अपने बाल्य जीवन से ही कबीर धार्मिक-प्रवृति के रहे थे। वे “राम राम” जपा करते थे और कभी-कभी माथे पर तिलक भी लगा लेते थे। किन्तु कबीर कोरे धार्मिक नहीं थे वे एक सजग और सचेत समाज-धर्मी पुरूष थे जिसे संसार की वक्र गति कष्ट पहुंचाती थी। इसके बारे में कबीर ने एक स्थान पर स्वयं लिखा है:

‘सुखिया सब संसार है, । खार्वे और सौवै । दुखिया दास कबीर है, जागे और रोवै’

कबीरदास मध्यकाल के संभवत; अकेले कवि थे, जिन्हें समाज की पीड़ा और दुख सबसे ज्यादा सालती और दुखी करती थी। कबीरदास ने सामाजिक-जीवन में व्याप्त भेदभाव और जातिगत छुआछूत को एकदम निजी स्तर पर महसूस किया था। यही कारण है कि भेदभाव और छुआछूत की शिकार जनता कबीर से आत्म विश्वास और सम्मान की अजस्र धारा आज भी ग्रहण करती है। आचार्य शुक्ल ने ठीक ही लिखा है: “अशिक्षित और निम्न श्रेणी की जनता पर इय संत-महात्माओं का बड़ा भारी उपकार है — आचरण की शुद्धता पर जोर देकर आंडंबरों का तिरस्कार करके, आत्म गौरव का भाव उत्पन्न करके, इन्होने इसे ऊपर उठाने का प्रयत्न किया। पाश्चात्यों ने इन्हें जो धर्म सुधारक की उपाधि दी है, वह इसी बात को ध्यान में रखकर दी है।”

कबीर का समस्त काव्य, चाहे साखी रूप में लिखा गया हो, पदरूप में लिखा गया हो या फिर शब्द रूप में लिखा गया हो, वह संपूर्णता में मध्यकालीन समाज और संस्कृति की व्यापक चेतना से पूर्णतः संबद्धित काव्य है। हिन्दू-मुस्लिम के भेद को परे रखकर कबीर ने समस्त मानव समाज के समक्ष साधना का एक समान मार्ग प्रस्तुत किया। कबीर ने स्वयं को ‘न हिन्दू न मुस्लिम’ कह कर परिभाषित किया। यह छोटा सा वाक्य ही कबीरदास की गहरी सामाजिक-सांस्कृतिक चिंताओं को मूर्त करता है।

वस्तुत: कबीरदास हिन्दी के ऐसे आरंभिक रचनाकारों में से एक हैं, जिन्होंने मनुष्यता को खण्ड-खण्ड करने वाली प्रत्येक वस्तु का विरोध किया और जीवन भर मानवीय समता की लड़ाई लड़ते रहे। एक पद में कबीर लिखते हैं।

“अला एकै नूर उपनाया ताकी कैसी निन्दा।
ता नूर थै कब जग कीया कौन भला कौन मंदा।।”

जिस सामयिक-सांस्कृतिक समता को लेकर कबीरदास काव्य रचना कर रहे थे उसकी दार्शनिक अभिव्यक्ति, पूर्ण सक्षमता में निम्नोक्त पद में दृष्टिगोचर होती है।

“जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है बाहरि भीतर पानी।
फूटा कुम्भ, जल जलहिं समाना यहु तत कथौ गियानी॥

अंत में, लक्ष्मीसागर वाष्र्णेय का यह कथन कबीर के संदर्भ में उद्धृत करना ही पर्याप्त है “वे हिन्दुत्व और इस्लाम के बीच की एक कड़ी थे। उन्होंने ऊंच-नीच की भेद-भावना हटाकर एकीकरण का साहस किया। — उन्होंने धार्मिक ग्रंथों को महत्व न देकर धर्म के वास्तविक तत्व पर जोर दिया।”

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Kabir Ke Dohe in Hindi

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Sant Kabir ke Dohe

कबीर यह तनु जात है सकै तो लेहू बहोरि ।नंगे हाथूं ते गए जिनके लाख करोडि॥

कबीर दास जी कहते हैं, इस तन को मैंने दीपक बना लिया है और अपने प्राणों की बत्ती बना कर इसे रक्त के तेल से जला लिया है, हे प्रभु इस तरह आपकी भक्ति में अपने आपको आपको समर्पित कर दिया है, प्रभु आपके दर्शन कब होंगे।

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Hindi Dohe with meaning

हाड़ जलै ज्यूं लाकड़ी, केस जलै ज्यूं घाससब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास

कबीर दास जी कहते हैं, यह मानव शारीर अंत समय में लकड़ी की तरह जल जाता है और यह बाल घास की तरह जल जाते हैं, इस तरह मानव की व्यथा को देख कर कबीर का मन उदास हो जाता है।

Dohe of Kabir

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय

कबीर दास जी कहते हैं, बड़े बड़े ग्रन्थ और किताबों को पढ़ कर कोई पंडित और ज्ञानी न हो सका, लेकिन यदि कोई प्रेम के ढाई अक्षर का मतलब समझ जाए तो वह पंडित बन जाएगा।

कबीर दास जी का यहाँ कहने का मतलब है मानव जन्म प्यार और मोहब्बत करने के लिए मिला है इसे नफरत और लड़ झगड़ कर व्यर्थ न करो।

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