Essay on National Language of India in Hindi भारत की राष्ट्रभाषा हिंदी पर निबंध

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National Language of India in Hindi भारत की राष्ट्रभाषा हिंदी पर निबंध

Essay on National Language of India

राष्ट्रभाषा के महत्व को रेखांकित करते हुए अति सुन्दर शब्दों में लिखा है- “प्रत्येक राष्ट्र के लिए एक राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगान, राष्ट्रप्रतीक और राष्ट्रभाषा आवश्यक है। इन्हीं के माध्यम से कोई राष्ट्र विश्व के अन्य राष्ट्रों के मध्य अपनी विशिष्ट पहचान बनाता है। राष्ट्रभाषा के माध्यम से ही राष्ट्र के चिन्तन और चरित्र का ज्ञान होता है। राष्ट्रभाषा के अभाव में राष्ट्र की अस्मिता समाप्त हो जाती है और वह गूंगा हो जाता है। राष्ट्रभाषा पूरे राष्ट्र को एकता के सूत्र में पिरोने का कार्य करती है। इसी के माध्यम से जनता अपने कष्टों को शासन तक पहुंचाती है और शासन भी अपनी जन-कल्याणकारी योजनाओं को जनसामान्य तक पहुंचाता है। इस प्रकार राष्ट्रभाषा शासन और जनता के बीच सेतु का कार्य करती है।” इसी प्रकार दक्षिण भारत की प्रख्यात विदुषी लक्ष्मी कुट्टी अम्मा का राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी का पूर्ण स्वीकार्य हिन्दी एवं अहिन्दीभाषी क्षेत्रों के मध्य विद्यमान इस द्वन्द को पूर्णत: पार देता है- “हिन्दी भाषा शिक्षण केवल ज्ञान प्रदान करने का साधन मात्र नहीं वरन् भावात्मक एकता कायम करने तथा प्रशासनिक शैक्षणिक तथा सांस्कृतिक क्षेत्रों में अखिल भारतीय स्तर पर भावाभिव्यक्ति और विचार-योजना की योग्यता प्रदान करता है।”

सन् 1950 में जब संविधान लागू किया गया तो राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को स्वीकार किया गया। हालाँकि पूर्णरूप से नहीं हो सका किन्तु फिर भी संवैधानिक रूप से ऐसी व्यवस्था तो की ही गयी थी। इस द्वैतपूर्ण स्थिति का बहुत कुछ कारण ऐतिहासिक रहा है। अंग्रेजी भाषा ब्रिटिश शासन के दौरान पूर्णरूप से राजकाज की भाषा रही थी। ऐसे में स्वयं भारतीय समाज में एक ऐसा अभिजात वर्ग तैयार हो गया था, जो अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति ब्रिटिश शासन और उसकी अंग्रेजी भाषा को स्वीकार करने में ही देखता-मानता था । वास्तविकता यही है कि आज आजादी के 50 वर्षों के बाद भी हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी की जो अत्यंत दयनीय स्थिति दिखलायी पड़ रही है, वह मूलत: इसी अंग्रेजी परस्त वर्ग के घृणित स्वार्थों का परिणाम है। इस वर्ग ने कभी हिन्दी को उस स्थान तक नहीं पहुंचने दिया जिसकी वह सच्ची अधिकारी थी। सन 1950 में जिस समय संवैधानिक तौर पर हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकारा गया था, उस समय इस अंग्रेजी परस्त वर्ग ने इसके विरोध में व्यापक प्रदर्शन किया था। इसी का परिणाम था कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा स्वीकार करते हुए भी सरकारी कामकाज की भाषा के तौर पर अंग्रेजी को आगामी 15 वर्षों के लिए स्वीकार किया गया। अंग्रेजी के प्रति यह जो रूख सरकार द्वारा ग्रहण किया गया, वह वस्तुत: इसी अंग्रेजी परस्त वर्ग का विजयोत्सव था।

खैर, 15 वर्षों के उपरांत सन् 1965 में, जब अंग्रेजी को सरकारी राजकाज की भाषी स्वीकारे जाने की समय सीमा समाप्त हुई, तब इसके अतिरिक्त एक अन्य दूसरी विकराल समस्या हिन्दी भाषा के समक्ष आ खड़ी हुई। वह थी अहिन्दी भाषा क्षेत्रों द्वारा हिन्दी को राष्ट्रभाषा स्वीकार किए जाने का व्यापक विरोध। सन् 1965 में ‘तमिलनाडु हिन्दी विरोध सम्मेलन आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाये जाने को समस्त दक्षिणी राज्यों के खिलाफ और अहित में बताकर प्रचारित किया गया। कतिपय राजनैतिक नेताओं और पार्टियों का भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष समर्थन इस आन्दोलन को प्राप्त था। वस्तुत: ऐतिहासिक वास्तविकता यही है कि तात्विक रूप से यह विरोध प्रवृत्ति भी मुलतः उन्हीं अंग्रेजी परस्त लोगों द्वारा खेला गया एक दूसरा कार्ड भर था। इस बात का प्रमाण यह था कि समूचा दक्षिण-भारत इस विरोध आन्दोलन का हिस्सा कभी नहीं बना, अपितु यदा-कदा राष्ट्रभाषा हिन्दी के समर्थन में लोग खड़े होते रहे। लक्ष्मी कुट्टी अम्मा का उदाहरण हम पहले ही दे चुके हैं।

वस्तुत: इस हिन्दी विरोध के मूल में एक भ्रम उपस्थित रहा है। वह भ्रम यह था, कि कुछ एक स्वार्थी लोगों द्वारा अहिन्दी भाषी लोगों के हृदय में यह आशंका भर दी गई कि अगर हिन्दी पूर्णत: राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार्य हो जाएगी, तो समूचे अहिन्दी क्षेत्र को सरकारी और प्रशासनिक क्षेत्रों से बाहर कर दिया जाएगा और साथ ही उनकी मातृभाषा को सदा-सदा के लिए उपेक्षित कर दिया जाएगा। परिणामत: उनका शैक्षणिक और सांस्कृतिक विकास सदैव के लिए अवरोधित हो जाएगा। इसी भय और आशंका के चलते हिन्दी-भाषी क्षेत्रों ने अपना मौन समर्थन इस हिन्दी विरोध आन्दोलन को प्रदान किया। किन्तु इधर कुछ समय से यह स्थिति समाप्त होती हुई दिख रही हैं। अहिन्दी क्षेत्रों में बढ़ रहा हिन्दी का प्रचार और प्रचलन हिन्दी भाषा के लिए शुभ संकेत कहा जा सकता है। किन्तु इस प्रकार के विरोध-आन्दोलनों ने राष्ट्रभाषा के रूप में पूर्णत: हिन्दी को व्यापक रूप से प्रभावित किया, इसमें किसी भी प्रकार का संदेह नहीं किया जा सकता। तत्कालीन गृह मंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री ने स्थिति की इसी विकरालता को देखते हुए कहा था: “आज अंग्रेजी सभी राज्यों की साझी भाषा है और राज्यों तथा केन्द्र के बीच पत्र व्यवहार भी उसी में होता है। यदि पाँच वर्षों में अंग्रेजी का त्याग कर दिया गया तो भारत अपने आप अलग-अलग भागों में बँटकर बिखर जाएगा। भारत का टुकड़ों में टूट जाने के भय ने ही केन्द्रीय राजनीति को कभी इतना सामर्थ्य नहीं दिया कि वह हिन्दी को पूर्णत: राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित कर सके।”

वस्तुत: अनेकानेक तर्को और कुर्तकों के माध्यम से आज तक हिन्दी भाषा को उसके अपने स्थान से निरन्तर वंचित रखा जाता रहा है। आज भी स्थिति इससे भिन्न नही कहीं जा सकती। हम आशा करते हैं कि आने वाला समय हिन्दी के साथ न्याय करेगा और वह पूर्णरूपेण राष्ट्रभाषा के पद पर आसीन हो सकेगी।

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