Essay and Poem on Nature in Hindi प्रकृति पर कविता एवं निबंध

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HindiinHindi Nature in Hindi

Nature in Hindi

प्रकृति मानव की सबसे आदिम सहचरी है। वस्तुत: मानव की आंखें ही प्रकृति की मनोरम गोद में खुली थीं। मनुष्य ने स्वयं को प्राकृतिक भव्यता के बीचोबीच पाया था। उसे अपने बेहद करीब देखा और पाया था। अर्थात् मानवीय अंतजर्गत में पहले-पहल भाव और विचार प्रकृति ने ही उत्पन्न किए। इससे मनुष्य में मानसिक गतिशीलता का जन्म और विकास हुआ। अनेक रूपा प्रकृति, अग्नि-शिखा सदृश सूर्य, अमृत की शीतल धारा को पृथ्वी पर बिखेरता चंद्र, गगन छूने को लालायित पर्वत, अपनी उताल तरंगों से धरती को क्षुब्ध करता हुआ समुद्र, धरा की प्यास बुझाने के लिए घिरते श्याम वर्णी मेध, भयंकर वेग से गर्जन करती हुई सरिताएं, पवन के अनेक रूप-स्वरूप और वातावरण को अपने मधुर कलरव से आनंदित करते अनेक रूपरंगधारी पक्षी ये सभी मानव-सभ्यता की दीर्घ यात्रा के चिर-परिचित अनुभव रहे हैं।

जिस प्रकार प्रकृति मनुष्य के भौतिक, जागतिक जीवन की घनिष्ठ सहचरी रही है, ठीक उसी प्रकार रचनाशील मनुष्य के काव्य में भी प्रकृति अपनी संपूर्ण भव्यता और विराटता में सदैव उपस्थित रही है। संस्कृति का प्राचीन साहित्य काव्य और प्रकृति के चिर संबंध को सहज प्रमाणित करता है। इसी प्रकार प्राकृत-साहित्य, अपभ्रंश-साहित्य, आधुनिक आर्य भाषाओं-अवधी, ब्रज, खड़ी बोली आदि में रचित हिन्दी साहित्य की प्रकृति-चित्रण की दृष्टि से विश्व-साहित्य में अप्रतिम स्थान रखता है। डॉ सुरेन्द्रनाथ सिंह ने ‘प्रकृति-चित्रण’ को परिभाषित करते हुए एक स्थान पर लिखा है: “मानव और मानव-कृत पदार्थों के अतिरिक्त विश्व में जो कुछ रूपात्मक सत्ता दृष्टिगोचर है, उसका चित्रण जब काव्य में किय जाता है तब उसे ‘प्रकृतिचित्रण’ कहते हैं।” प्राचीन साहित्य में चित्रित प्रकृति के रूप-स्वरूप को रेखांकित करते हुए वे कहते हैं: “वैदिक युगीन कवि प्रकृति की छटा देखकर विस्मय-विमुग्ध है, चमत्कृत है। क्षणक्षण में बदलने वाले प्रकृति के रूपों में चैतन्य का दर्शन करता है। लौकिक संस्कृत के काव्यों में प्रकृति के अनेकानेक रूपों का हृदयग्राही चित्रण हुआ है। प्रकृति के प्रति कवि में आत्मीयता एवं संवेदना है। उसका सौन्दर्य-बोध अत्यंत परिष्कृत है। उसने प्रकृति-वर्णन के विविध पक्षों का चित्ताकर्षक उद्घाटन किया है।”

काव्य में प्रकृति-चित्रण अनेक रूपों में हुआ है। जिनमें प्रमुखतः प्रकृति का आलंबन रूप में चित्रण, उद्दीपन रूप में चित्रण, उपदेशिका रूप में चित्रण, मानवीकरण के रूप में चित्रण आदि प्रमुख हैं।

हिन्दी साहित्य का मध्यकाल प्रकृति-चित्रण की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध है, हालाँकि इससे पूर्व विद्यापति के काव्य में भी प्रकृति के नैसर्गिक रूप-सौन्दर्य का अद्भुत चित्रण व्यापक रूप में हुआ है। तुलसीदास, जायसी, सूर, केशवदास, बिहारी, घनानंद, आदि कवियों की एक लंबी श्रृंखला रही है, जिन्होंने अपने काव्य को प्रकृति की मार्मिक रूप-छटाओं से समृद्ध किया है। प्रकृति का शोक-संतप्त और उसका समानुभूत रूप तुलसीदास ने ‘गीतावली’ के अरण्येकाण्ड में चित्रित किया है। इसकी प्रभावन्विति और मार्मिकता अद्वितीय है। उदाहरण स्वरूपः

सरित जल मलिन सरति सूखे नलिन,
अलि न गुंजत कल कूर्जी न मराल।
कोलिनि कोल किरात जहां-तहां बिलखात।
बल न बिलोकि जात खग मृग भाल।
तरु जे जानकी लये ध्यावे अरि करी।
हेरौं न हुंकरि करें फल न रसाल।
औरै सो सब समाजु कुसल न दैखौ आजु
गहबर हिय कहं कौसभपाल।

प्रकृति का उद्दीपन रूप में चित्रण रीतिकालीन कविता की एक निजी विशेषता रही है। बिहारी का निम्नोक्त दोहा, जो हिन्दी समाज में अति प्रसिद्ध है, प्रकृति के उद्दीपन रूप का एक सटीक प्रमाण है:

सघन कुज, छाया सुखद, सीतल मंद समीर।
मन हवै जात अज, वा जमुना के तीर।।

मानवीकृत रूप में प्रकृति का चित्रण, प्रकृति-चित्रण का एक उच्च स्तर है। घनानंद की कविता संपूर्ण रूप में प्रकृति-चित्रण के इसी स्तर से संबंधित है। उनकी कविता से प्रकृति-चित्रण का एक उदाहरण दृष्टव्य है।

कारी कूर कोकिला कहां को बैर काढ़ति री;
कुकि कुकि अबही करे जो किन कोरि रै।
पैंड़ परैपापी ये कलापी निसि घौस ज्यों ही,
चातक रे घातक ध्वै तुहू कान फोरि लै।

हिन्दी साहित्य का “आधुनिक काल” प्रकृति-चित्रण की परंपरा को पूर्णत: ग्रहण करता है। भारतेन्दु, रामनरेश त्रिपाठी, जगमोहन सिंह आदि आरंभिक समय के कवि हैं और इनका काव्य प्राकृतिक सौन्दर्य में स्वयं को पूर्णत: डूबो देने वाला साहित्य प्रतीत होता है। ‘छायावाद’ तो मूलत: प्रकृति-काव्य ही है। इसी प्रकार प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नयी कविता आदि अनेक काव्य-आंदोलन भी प्रकृति-चित्रण की प्रवृति से तटस्थ नही कहे जा सकते। अनेक राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक विकृतियों के व्यापक चित्रण की प्रवृति के बाद भी हिन्दी की समकालीन कविता स्वयं को प्रकृति के प्रति अपने सहज आकर्षण से मुक्त नहीं रख सकी है। इस स्थिति में स्पष्टत: कहा जा सकता है कि प्रकृति और काव्य का संबंध आदिम ही नहीं शाश्वत भी हैं।

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