Car liberation Movement in Hindi कार मुक्ति आंदोलन

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Car liberation Movement in Hindi

दुनिया में ऐसे तमाम उदाहरण हैं, जिनसे लगता है कि वाहनों से होने वाले प्रदूषण के खिलाफ चेतना जगी है और इसके लिए नीति और कार्यक्रम के स्तर पर ठोस कदम भी उठाए जा रहे हैं। यहाँ तक कि आजकल कई जगह ऐसे भी संगठन हैं जो कार-फ्री माहौल चाहते हैं। कुछ संगठन हैं जो साइकिल पर जोर देते हैं। आज जिस गति से सड़कें और फ्लाई ओवर बन रहे हैं, उसी गति से वाहन भी बढ़े हैं, अमेरिका के एक सर्वे से पता चलता है कि अगर सड़कें दस फीसदी की दर से बढ़े हैं तो गाड़ियां नौ फीसदी की दर से बढ़ रही हैं। साथ ही इनके लिए बने फ्लाई ओवर तो शहर की भौगोलिक संरचना को ऐसे स्थायी रूप से बदल देते हैं कि यहां पैदल चलने वाले और साईकिल सवारों के लिए जगह नहीं रहती। इसलिए विश्व के कुछ शहरों में फ्लाई ओवरों का निर्माण रोका जा रहा है। लेकिन सिर्फ फ्लाईओवर निर्माण को रोके देने से कुछ नहीं होगा। इसलिए एक तरफ वाहनों में कम प्रदूषण वाले ईंधन की प्रोद्योगिकी लगानी होगी, उनकी संख्या को नियमित करना होगा और सार्वजनिक वाहनों की संख्या बढ़ानी होगी। दूसरी तरफ बिना मोटर वाले वाहनों को गरिमा प्रदान करनी होगी और छोटी-छोटी दूरी के लिए साईकिलों की उपयोग करना होगा। लेकिन जब वामपंथी सरकार भी रतन टाटा की जनता कार की परियोजना को हासिल करके गदगद है, वहां कोई दक्षिणपंथी सरकार कारों की संख्या पर लगाम लगाने को कैसे तैयार होगी?

आज भारत में कारों की चर्चा उसी तरह से होती है, जैसे कभी देवी-देवताओं के वाहनों की होती थी। वे सराहे भी जाते हैं और पूजे भी जाते हैं। यहां हर तरह के व्यक्ति का आभामंडल बनाने में उसकी कार का विशेष योगदान है। फिर भी सीएसई (centre for science and environment) ने कारों के साथ-साथ सभी मोटरवाहनों के विरोध में स्वर उठाया। इसी संगठन ने ही आठ साल पहले दिल्ली के बढ़ते प्रदूषण को रोकने के लिए सीएनजी की बसें ऑटो व टैक्सियों चलवाने के पक्ष में जमीन-आसमान एक कर दिया था। उस वक्त इस अभियान में उसे सुप्रीम कोर्ट का साथ तो मिला, पर जनता राजनेता और तरह-तरह की लाबियों का कड़ा विरोध झेलना पड़ा। फिर इसने निजी वाहनों की संख्या पर लगाम देने और सुरक्षित ईंधन को राष्ट्रीय स्तर पर अपनाने पर जोर दिया। इससे सिर्फ भारत और एशिया ही नहीं, पूरी दुनिया के वाहन, ईंधन, सड़कें, गति और जनस्वास्थ्य के बारे में तमाम अध्ययन शुरू हो गया, जिससे यह पता चलता है कि अब विकासशील देशों में कारों की संख्या विकसित देशों के मुकाबले काफी कम है। वहाँ प्रति हजार व्यक्तियों पर 650 कारें हैं, तो विकसित देशों में यह संख्या 224 है। आने वाले समय में यह संख्या विकसित देशों में सालाना 5 फीसदी बढ़ेगी, जबकि विकासशील देशों में 30 फीसदी बढ़ने वाली है। इसलिए दुनिया के संपन्न देशों में कारों से मुक्ति का आंदोलन बढ़ रहा है।

सन् 2000 से, प्रत्येक वर्ष 22 सितंबर को पूरी दुनिया में ‘कार मुक्ति दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। यह आंदोलन अभी भले ही प्रतीकात्मक स्तर पर हो, लेकिन किसी न किसी रूप में इस दिशा में काम चल रहा है। यूरोप में अब ऐसा शहर बनाया जा रहा है, जहां दफ्तर और घर बीच की दूरी को कम किया जा सका। व्यावसायिक इलाकों को भी घर और दफ्तर के करीब लाए जा रहें हैं। एशिया के सिंगापुर, कुआलालंपुर और अन्य शहरों में कारों की खरीद पर परमिट लागू किया जा रहा है। इस सिलसिले में दूसरा कार्यक्रम द्रव ईंधन की जगह पर गैस ईंधन को तेजी से अपनाने का है। वैसे कार मुक्ति आन्दोलन का यह कार्यक्रम टुकड़ों-टुकड़ों में पूरे विश्व में चल रहा है। लेकिन भारत सरकार ने कोई राष्ट्रीय नीति बनाने की दृढ़ इच्छा नहीं जताई है, इसके चलते इसमें उतनी गति नहीं आ पा रही है जितनी असर डालने के लिए जरूरी है। हांलाकि जो शहर हजीरा, बीजापुर और जगदीश पुर गैस पाइप लाइन के किनारे हैं, वहां सीएनजी का एक नेटवर्क बन रहा है। सीएनजी कार्यक्रम के लागू करने में अहमदाबाद, सूरत, भरूच, अंकलेश्वर और बड़ोदर जैसे गुजरात के शहर काफी आगे हैं। पर चेन्नई, बेंगलूर, हैदराबाद और कोलकाता आदि दक्षिण और पूरब के शहर जो इस नेटवर्क से बाहर हैं, वहाँ सीएनजी की बजाय एलपीजी को अपनाने की तैयारी चल रही है। वैसे नीतिगत और व्यावसायिक स्तर पर यह दृष्टिकोण अभी भी बरकरार है कि गैस बनाम द्रव की बहस बेकार है। असली बहस प्रदूषण के मानकों पर खरा उतरने की होनी चाहिए।

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने हाल में बैंगलूर में एक फ्लाईओवर का शिलान्यास करते हुए कहा कि हमें सड़कों पर चलने का सलीका सीखना होगा, क्योंकि सालाना एक लाख लोग सड़क हादसों में मरते हैं। उन्होंने मुंबई और बैंगलूर दोनों शहरों में मैट्रो का शिलान्यास करते हुए सार्वजनिक परिवहन प्रणाली के बढ़ाए जाने पर भी जोर दिया। लेकिन मसला उससे भी आगे का है, क्योंकि दुनिया में वायु प्रदूषण से मरने वाले आठ लाख लोगों में दो तिहाई भारत के हैं पीकऑवर में शहर की सड़कों पर गाड़ियाँ सात-आठ किलोमीटर प्रतिघंटा की गति से रेंगती हैं और भारत में वाहनों के जाम से होने वाले नुकसान का परिणाम 3000-4000 करोड़ रूपए का है, जबकि प्रदूषण कम होने और गाड़ियाँ कम होने से स्वास्थ्य और गति के स्तर पर होने वाला लाभ भी कई हजार करोड़ है। इसलिए हमें अपनी ईंधन नीति और परिवहन नीति पर सोचने और बहस करने की गति को कार से आगे ले जाना होगा, ताकि सबकुछ बेकार होने से पहले कारों और निजी वाहनों को ठहरने का संकेत दिया जा सके।

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