Essay on Drama in Hindi नाटक पर निबंध

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hindiinhindi Drama in Hindi

Essay on Drama in Hindi

नाटक उद्भव और विकास

नाटक को दृश्य काव्य मानकर भारतीय भाषाओं में चिरन्तन काल से इसकी रचना होती आ रही है। संस्कृत-साहित्य में नाटक-साहित्य की एक परिपूर्ण-परंपरा जरूर मिलती है। परंतु जिस ग्यारहवीं शताब्दी से हिंदी-साहित्य का आरंभ माना गया है, तब से लेकर आधुनिक काल के प्रथम चरण भारतेन्दु-युग तक रचे गए हिंदी-साहित्य में नाटकों की अल्पता स्पष्ट दिखाई देती है। इसी बीच लोगों में नाटक, रास-लीला, नौटंकी और रामलीला अथवा स्वाँग आदि के रूप में जरूर जीवित रहा। पर ललित-साहित्य में उसका सर्वथा अभाव हो गया। इसका कारण मुगल शासन को माना जाता है, जिसमें देवी-देवताओं एवं ईश्वर की नकल धर्म के विपरीत मानी गई है; जबकि ‘नट्-अनुकरणे’ से बने नाटक का अर्थ नकल करना अथवा जो कुछ भी घट-बीत चुका है, उस सबकी पुनर्रचना करना होता है।

हिन्दी में नाटक का आरंभ भारतेन्दु-युग में भारतेन्दु जी के प्रयास से ही हुआ, ऐसा माना जाता है। उन्होंने मौलिक नाटक तो लिखे ही; बंगला, संस्कृत और अंग्रेजी नाटकों के अनुवाद तथा कुछ रूपांतरण भी उपलब्ध किए। इतना ही नहीं, अपने रचे नाटकों को अभिनीत करने के लिए एक रंगमंच भी स्थापित किया। भारत दुर्दशा, चन्द्रावली, अंधेर नगरी, नील देवी, वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, प्रेम योगिनी, सती प्रताप आदि भारतेन्दु-रचित मौलिक नाटक हैं। उनके सभी प्रकार के नाटकों की संख्या डेढ़ दर्जन से भी अधिक मानी जाती है। उनकी मंडली के अधिकांशत: सभी लेखकों ने भी नाटक रचकर इस विधा के विकास में सहयोग किया। कला और शिल्प के नजरिये से भारतेन्दु युग के नाटक संस्कृत-परंपरा के अधिक करीब दिखाई पड़ते हैं। हाँ, भारतेन्दु जी की रचनाओं में कुछ मौलिकता जरूर है।

भारतेन्दु-युग के बाद जयशंकर प्रसाद के आगमन तक एक बार नाटकों का अभाव खलने लगा। इस दौरान कुछ साहित्यिक नाटक ही लिखे गए अथवा फारसी कंपनियों के लिए कुछ सामान्य कोटि के शृंगारिक, मनोरंजन-प्रधान नाटक ही लिखे जाते रहे। जयशंकर प्रसाद ने बंगाल के द्विजेन्द्र लाल राय, फारसी और संस्कृत थियेट्रिकल कंपनियों के मिश्रित प्रभाव से जिस नई नाट्यकला को जन्म दिया, उसे ‘प्रसादान्त’ कहा जाता है। उनमें काव्यमयता और साहित्यिकता भी पर्याप्त है और अंक-दृश्य योजना भी विविधतापूर्ण है। इस कारण उनके नाटकों का रंगमंचोपयोगी नहीं माना जाता। विशेष श्रेय और महत्त्व इस बात को दिया जाता हैं कि उन्होंने उपेक्षित विधा को पुनर्जीवित कर उसकी बिखरी कड़ियों को मिलाया। कारण जो भी हो, भारतेन्दु के बाद प्रसाद जी को हिन्दी विकास-प्रक्रिया और नाटक-रचना का दूसरा मुख्य पड़ाव एवं मील का पत्थर माना जाता है। हरिकृष्ण ‘प्रेमी’, उदय शंकर भट्ट, गोविन्द वल्लभ पंत आदि इस युग के अन्य नाटककार हैं। इन सभी ने पौराणिक, ऐतिहासिक और सामाजिक आदि सभी तरह के नाटकों की रचना की।

प्रसाद-युग के अंतिम पड़ाव में ही लक्ष्मीनारायण मिश्र पश्चिम से समस्या प्रधान नाटकों की रचना-प्रक्रिया लेकर हिंदी में नाटक की रचना करने लगे थे। उनके नाटकों में अभिनय के बहुत तत्व पाए जाते हैं। समस्या प्रधान नाटक के प्रवर्तक तो वे हैं ही, इनके अतिरिक्त उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’, सेठ गोबिन्द दास, वृन्दावन लाल वर्मा, राजकुमार वर्मा आदि ने भी कई नाटक रचकर इस विधा को नया आयाम प्रदान किया। समस्या, अभिनेयता एवं नाटकीय दृष्टिकोण से उन सभी में से उपेन्द्रनाथ अश्क’ को सर्वाधिक सफल माना जाता है। इनके अलावा भी कुछ अन्य लेखक इस दिशा में सक्रिय थे। जिसमें प्रमुख हैं – अमृतलाल नागर, चतुरसेन शास्त्री, विष्णु प्रभाकर, चन्द्रगुप्त विद्यालंकार, जयनाथ नलिन, राजेश शर्मा, रमेश मेहता, रांगेय राघव और देवराज आदि। यह युग सन् 1960 तक चलता रहा।

इसके बाद हिन्दी नाट्य-साहित्य के क्षेत्र में मोहन राकेश के नाटकों से आधुनिक, सशक्त अभिनय नाटकों का युग शुरू हुआ। ‘लहरों के राजहंस’, ‘आषाढ़ का एक दिन’, ‘आधे-अधूरे’ नाटकों को मोहन राकेश की ही नहीं, हिंदी नाटक की महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ माना जाता है। जगदीश चंद्र माथुर के रचे ‘कोणार्क’ ‘शारदीया’ और ‘पहला राजा’ को भी बहुत महत्त्व दिया जाता है। लक्ष्मीनारायण लाल, धर्मवीर भारती, सुरेन्द्र वर्मा आदि अन्य सशक्त नाटककार माने जाते हैं। इन्होंने अनेक अभिनेय नाटक रच कर हिन्दी-नाटक को समृद्धि प्रदान की है।

हिन्दी नाटक रचने वाले अन्य अच्छे नाटककार भी विद्यमान हैं, फिर भी हिन्दी-नाटकों के अभाव की जो बात बार-बार कही जाती है, वह गले नहीं उतरती । प्रतीत होता है, वास्तव में एक तो हिन्दी रंगमंच की कमी है। दूसरे, अन्य क्षेत्रों में जैसे अंग्रेजी और अंग्रेजों की नकल की प्रबल प्रवृत्ति विद्यमान है, वैसी ही हिन्दी-नाटकों के प्रति भी है। इसी कारण अंग्रेजी अथवा अन्य पाश्चात्य नाटकों के अनुवाद को ही प्रस्तुत किया जाता है। इस प्रक्रिया और प्रवृत्ति को हिन्दी-नाटक के लिए कतई शुभ नहीं माना जा सकता।

Essay on Drama in Hindi 1000 Words

नाटक का युग

‘नाटक’ साहित्य का एक अति प्राचिन रूप है। सर्वप्रथम भरत मुनि ने नाटक (नाट्य) के रूप-स्वरूप का सूक्ष्म विवेचन और विश्लेषण ‘नाट्यशास्त्र में किया था। नाट्य विद्या की दृष्टि से भारतीय साहित्य पूर्णत: समृद्ध साहित्य रहा है । नाट्य-लेखन की विस्तृत परंपरा हमारे यहां विद्यमान रही है। मध्य युग नाट्य-सृजन की दृष्टि से अपेक्षाकृत कुछ शिथिल युग रहा है, फिर भी नाट्य लेखन वहां भी किसी न किसी रूप में होता ही रहा है। किंतु आधुनिक युग तो जेसे अपनी प्रकृति में नाट्य धर्मी ही रहा है। नाट्य लेखन की प्रचुरता आधुनिक समय में निरंतर बनी रही।

भारतेन्दू और प्रसाद जी आधुनिक काल के प्रमुख नाटककार रहे हैं। इस आधार पर नाट्य साहित्य के संपूर्ण विकाश को तीन वर्गों में रखा जा सकता है- 1 भारतेन्दु-युगीन नाट्य साहित्य 2 प्रसाद-युगीन नाट्य साहित्य 3 प्रसादोत्तर नाट्य साहित्य।

1- भारतेन्दु युगीन नाट्य साहित्य

भारतेन्दु-युग को नाट्य-विद्या की दृष्टि से सबसे समृद्ध युग कहा जा सकता है। स्वयं भारतेन्दु, प्रताप नारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट, राधाकृष्ण दास, राधाचरण गोस्वामी, देवकीनंदन खत्री, हरिऔध आदि अनेक सशक्त नाटककार इस युग में हुए। सामाजिक, ऐतिहासिक, पौराणिक और कल्पनाप्रसृत नाटकों की समृद्ध रचना इस युग में हुई। साथ ही वंगला, मराठी और अंग्रेजी आदि अन्य भाषाओं से अनुवाद की प्रवृत्ति भी भारतेन्दु-युगीन नाटककारों में सहज ही दिखलायी पड़ती है।

भारतेन्दु-युगीन नाटकों का मूल स्वर सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक सुधार एवं बदलाव का रहा है। अनमेल विवाह, दहेज प्रथा, छुआ-छूत और धार्मिक-जातिगत भेदभावों और संकीर्णताओं की प्रवृतियों का पुरजोर विरोध भारतेन्दु-युगीन नाटकों की विशेषता है। इसी के साथ, ब्रिटिश शासन में आर्थिक शोषण की भयावहता का मार्मिक चित्रांकन भी व्यापाक स्तर पर भारतेन्दु-युगीन नाटकों में हुआ है।

भारतेन्दु हरिश्चंद्र इस युग के केन्द्रीय नाटककार थे। उन्होंने निम्नोक्त मौलिक नाटकों की रचना की वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, विषस्य विषमौषधम्, चंद्रावली, भारत दुर्दशा, नीलदेवी, सतीप्रताप और अंधेर नगरी। उन्होंने अनेक नाटकों का हिन्दी में अनुवाद भी किया। उनके नाटक प्राचीन और आधुनिक तथा भारतीय और पाश्चात्य नाट्य शैलियों के विवेकपूर्ण संयोजन के नाटक हैं। भारतेन्दु के अतिरिक्त प्रताप नारायण मिश्र के ‘गौ संकट नाटक’, ‘हम्मीर हठ’, कलिकौतुक (रूपक), पंडित बालकृष्ण भट्ट के ‘दमयंती स्वयंवर’, ‘वेनी संहार’ राधाकृष्णदास के ‘महाराणाप्रताप सिंह’, लाला श्रीनिवास दास का ‘रणधीर’ और ‘प्रेम कोहिनी’, राधा-चरण गोस्वामी का ‘अमर सिंह राठौर’ और देवकी नंदन खत्री का ‘रूक्मिणी हरण’ आदि भारतेन्दु-युगीन नाटकों में प्रमुख हैं।

2- प्रसाद-युगीन नाट्य साहित्य

प्रसाद-युग हिन्दी नाट्य-परंपरा का एक अत्यंत महत्वपूर्ण मोड़ है। स्वयं जयशंकर प्रसाद इस युग के केन्द्रीय नाटककार हैं। इस युग विशेष के संपूर्ण नाट्य-साहित्य का रूप-रंग निर्मित और निर्धारित करने में प्रसाद जी की ही भूमिका निर्णायक रही। प्रसाद जी के अतिरिक्त इस युग के अन्य महत्वपूर्ण नाटककारों में हरिकृष्ण ‘प्रेमी’, उदयशंकर भट्ट, लक्ष्मी नारायण मिश्र और मैथिलीशरण गुप्त आदि हैं।

जैसा कि कहा गया, इस युग विशेष के नाट्य-साहित्य को रूप-रंग प्रदान करने का श्लाह कार्य प्रसाद जी ने किया।

प्रसाद जी का नाट्य-लेखन में अविर्भाव वस्तुत: नाट्य साहित्य के नवीन युग का अविर्भाव ही था। उन्होंने- ‘सज्जन’, ‘प्रायश्चित’, ‘कल्याणी परिणय’, ‘करुणालय’, ‘राज्य श्री’, विशाखा, ‘अजातशत्रु’, ‘जन्मेजय का नाग यज्ञ’, ‘कामना’, ‘स्कन्दगुप्त’, ‘एक घूंट’, चन्द्रगुप्त, और ‘ध्रुवस्वामिनी’ नामक अनेक नाटकों की रचना की। प्रसाद जी के प्राय: सभी नाटक इतिहास, संस्कृति और दर्शन पर आधारित हैं। उनके नाटकों की मूल चेतना ‘राष्ट्रीय-सांस्कृतिक’ है। प्रसाद जी ने देशभक्ति, राष्ट्र-प्रेम, साम्राज्यवादी शासन का विरोध तथा नारी उद्धार आदि अनेक विषयों को नाटकों के माध्यम से प्रस्तुत किया। पराधीन भारतीय समाज में प्रसाद जी ने अपने नाटकों के माध्यम से मुक्ति की प्रबल भावना को जाग्रत करने का कार्य किया। वस्तुतः प्रसाद जी के नाटकों में अभिव्यक्त सांस्कृतिक चेतना को ब्रिटिश साम्राज्यवाद की सांस्कृतिक पराधीनता से जोड़कर देखना चाहिए। प्रसाद जी ने अपने नाटकों के माध्यम से ब्रिटिश साम्राज्य की इस सांस्कृतिक पराधीनता को तोड़ने का कार्य किया। इस हेतु प्रसाद जी ने भारतीय इतिहास की प्राचीन परम्परा को ग्रहण किया, और वहां से ऐतिहासिक चरित्रों को उठाकर समकालीन स्वाधीनता आंदोलन हेतु भारतीय जनमानस को सक्रिय करने के लिए उदाहरण रूप में उन्हें ही प्रस्तुत किया। एक स्थान पर अपनी इस धारणा को प्रसाद जी ने अभिव्यक्त करते हुए लिखाः

“इतिहास का अनुशीलन किसी भी जाति का आदर्श संघटित करने में अत्यंत लाभदायक होता है।” यहाँ यह स्पष्ट है कि प्रसाद जी अपने नाटकों के माध्यम से भारतीय जनमानस के समक्ष भारतीय संस्कृति के औदात्यपूर्ण आदर्श प्रस्तुत कर रहे थे। वस्तुतः यही उनके नाटकों की वह ऐतिहासिक भूमिका है जो उन्हें सदैव चिरस्मरणीय बनाए रखेगी। इसी के साथ प्रसाद जो का नाट्य लेखन नाट्य-कला के संदर्भ में विकसित आधुनिक धारणाओं को भी स्पष्ट करता है। प्रसाद जी ने अपनी नाट्य-शैली को पूर्वी-पश्चिमी नाट्य-सिद्धान्तों के आधार पर निर्मित और विकसित किया। साथ ही ‘हिन्दी रंगमंच’ की अनिर्वायता को भी सर्वप्रथम प्रसाद जी के नाटकों ने ही रेखांकित किया।

प्रसाद-युग के अन्य महत्वपूर्ण नाटककार हरिकृष्ण ‘प्रेमी’ थे। उन्होंने मध्यकालीन इतिहास और संस्कृति पर आधारित अनेक उपन्यासों की रचना की। उनके प्रमुख नाटकः रक्षाबंधन, प्रतिशोध, स्वप्न-भंग और आहुति आदि हैं। उदयशंकर भट्ट के ‘विश्वामित्र’, ‘राधा’ और ‘मत्स्यगंधा’ आदि नाटक इस युग के महत्वपूर्ण नाटकों में गिने जाते हैं। इसी के साथ लक्ष्मीनारायण मिश्र के समस्या प्रधान नाटकों का स्थान प्रसाद युगीन नाटकों में महत्वपूर्ण है। उनके द्वारा रचित नाटकों में ‘राक्षस का मंदिर’, सिंदूर की होली, ‘संन्यासी’ और ‘मुक्ति का रहस्य’ आदि प्रमुख हैं।

प्रसादोत्तर नाट्य साहित्य

प्रसादोत्तर हिन्दी नाटककारों में उपेन्द्रनाथ अश्क, रामकुमार वर्मा, जगदीश चंद्र माथुर, भुवनेश्वर और उदयशंकर भट्ट प्रमुख हैं। अंजो दीदी, स्वर्ण की झुमक और भेद अश्क के कुछ प्रसिद्ध नाटक हैं। इनमें उन्होंने मध्यवर्गीय समस्याओं को चित्रित किया है। ‘कोणार्क’ जगदीश चंद्र माथुर का अति लोकप्रिय नाटक है। इसके अतिरिक्त धर्मवीर भारती का ‘अंधा युग’, दुष्यंत कुमार का ‘एक कंठ विषयामी’ और पंत जी का ‘शिल्पी’ इस युग के अन्य महत्वपूर्ण नाटक रहे हैं।

मोहन राकेश इस युग के सबसे लोकप्रिय और महत्वपूर्ण नाटककार हैं। उन्होने ‘आषाढ़ का एक दिन’, ‘महलों का राजहंस और ‘आधे-अधूरे’ नामक नाटकों का रचना की।

लक्ष्मीनारायण लाल और विष्णु प्रभाकर भी इस युग के महत्वपूर्ण नाटककार हैं। लक्ष्मीकांत वर्मा के ‘खाली कुर्सी की आत्मा’ मुद्राराक्षस का ‘तिलचट्टा’, शंकर शेष का एक और द्रोणाचार्य’ इस युग के कुछ अन्य लोकप्रिय नाटक रहे हैं।

नाट्य सृजन की परंपरा आज भी उसी वेग और उत्साह के साथ गतिशील है जिसे देखते हुए इस विद्या का भविष्य अत्यंत उज्जवल दिखाई पड़ता है।

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