Essay on Parvatiya Yatra in Hindi पर्वतीय प्रदेश की यात्रा पर निबंध

Essay on Parvatiya Yatra in Hindi Language. Write an essay on parvatiya yatra in Hindi – पर्वतीय प्रदेश की यात्रा पर निबंध। Essay for students of class 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10, 11 and 12. पर्वतीय प्रदेश की यात्रा पर निबंध।

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Essay on Parvatiya Yatra in Hindi

विद्यार्थी विद्यालय की चारदिवारी में रहकर ही सब कुछ नहीं सीख पाता। पुस्तकों का ज्ञान कुछ समय के पश्चात् वह भूल जाता है परन्तु वे दृश्य जो उसने अपनी आँखों से देखे हैं, उन्हें वह सारी आयु नहीं भूल पाता। स्थान-स्थान पर यात्रा करने से परिचय का क्षेत्र बढ़ता है। वहां के लोगों के रहन-सहन, खान-पान, वेशभूषा आदि का भी परिचय मिलता है। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए हमने भी पिछले दिनों एक पर्वतीय प्रदेश की ऐतिहासिक और धार्मिक यात्रा की।

इस बार हमारे स्कूल के ग्यारवीं कक्षा के विद्यार्थियों ने अध्यापक विमल कपूर जी के साथ वैष्णो देवी जाने का निर्णय किया। हम जालन्धर से लगभग रात के चार बजे जेहलम गाड़ी, जो सीधी जम्मू जाती है, में सवार हो गए। गाड़ी के चलने के समय ‘जय माता की’ की ध्वनि से सारा स्टेशन गूंज उठा। कुछ समय तक हम आपस में बातें करते रहे। धीरे-धीरे छात्रों को नींद आ गई और सभी सो गए। सुबह दस बजे के लगभग हम जम्मू तवी पहुंचे। उस दिन के लिए सभी ने जम्मू घूमने का निर्णय किया। हम रघुनाथ मन्दिर की सराय में ठहरे।

जम्मू के आगे तक बस टेढ़े-मेढ़े घुमावदार मार्ग पर चलने लगी। बस में बैठे-बैठे हम लोग दूर दूर तक हिम आच्छादित पर्वत श्रृंखलाओं को देख रहे थे। कभी-कभी कोई भक्त माता का जयकारा लगाता तो सभी उसके साथ बोल पड़ते। ठंडी-ठंडी हवा के झोंके हमें प्रसन्नता प्रदान कर रहे थे। इस प्रकार पहाड़ी मार्ग से यात्रा करते हुए हम दिन के 12 बजे कटरा पहुंचे।

लगभग सायं सात बजे हमने वैष्णों देवी के लिए पैदल यात्रा आरम्भ की। कटरा से थोड़ी दूरी पर बाण गंगा है। हमने उसमें उतर कर स्नान किया। यहां से वैष्णों देवी की यात्रा के लिए दो मार्ग हो जाते हैं। एक मार्ग सीढ़ियों वाला तथा दूसरा घुमावदार पगडण्डी का मार्ग है। हमने निश्चय किया कि कभी सीढ़ियों से चढ़े और कभी पगडण्डी से। दोनों रास्तों पर आने जाने वाले लोगों की भीड़ थी। लोग आते जाते ‘जय माता की’ कहकर एक दूसरे का स्वागत करते थे। यात्रियों में दक्षिण भारत के भी बहुत से लोग हमसे मिले। धीरे-धीरे चलते हम अर्द्धवारी पहुंचे। रात्रि के समय यहां चढ़ना बहुत सुखद और मनोहारी लगता है।

अनेक यात्री रात्रि को यहीं विश्राम करते हैं तथा सुबह फिर अपनी यात्रा आरम्भ करते हैं। परन्तु हम सबने यह निर्णय किया कि हम लोग अपनी यात्रा को जारी रखेंगे। अत: यहां हमने रात्रि का भोजन किया। रात्रि में यहां से कटरा की ओर अत्यन्त मोहक प्रकाश दिखाई देता है। फिर इस मार्ग पर चढ़ते हुए हमें अत्यन्त आनन्द आ रहा था। चढ़ाई चढ़ते समय कठिनाई और थकान तो अवश्य होती है। परन्तु आनन्द भी बहुत मिलता है। यह मार्ग रात को भी यात्रियों से खचाखच भरा रहता है। थोड़ी दूरी हाथी मत्था नामक स्थान आता है। इस स्थान पर बैठ कर हमने थोड़ा विश्राम किया।

हाथी मत्था से आगे की यात्रा बड़ी रोचक रही। यहां से चढ़ाई समाप्त होती है। पहाड़ी चोटियों से घिरे हुए इस प्रदेश में दूर-दूर तक के स्थान नज़र आते हैं। हरे भरे खेतों के दृश्य, घने जंगल में पक्षियों के चहचहाने की आवाजें बहुत ही कर्णप्रिय लगती हैं। इस स्थान के पश्चात् लोग भाग-दौड़ कर जाते हैं, बच्चे तो बहुत प्रसन्न होकर दौड़ लगाते हैं। फिर कुछ समय के बाद उतराई आरम्भ हो जाती है। इसके बाद माता वैष्णों देवी की सुन्दर गुफ़ा नज़र आने लगती है। हम लोग माता की जय घोष करते हुए सुबह के चार बजे मन्दिर में पहुंचे।

यह स्थान वास्तव में एक पहाड़ी स्थान पर बना हुआ है। पहाड़ को काट कर ही माता का मन्दिर बनाया गया है। इस स्थान पर कुछ व्यापारी लोगों के होटल और दुकानें हैं तथा शेष धर्मशालाएं हैं। पहाड़ी पर इस तीर्थ के होने के कारण यहां इधरउधर घूमने के अन्य स्थान नहीं हैं। चारों ओर पीछे पहाड़ ही पहाड़ नज़र आते हैं। स्नान के लिए माता के मन्दिर के पास ही चार पांच नलों की व्यवस्था है। यहां पहुंच कर हमने स्नान किया।

मन्दिर में चढ़ाने के लिए प्रसाद लेकर हम पंक्तियों में खड़े हो गए। लाइन में लगभग तीन घंटे खड़े रहने के बाद हमारी बारी आई। माता की गुफा में जाकर हमने तीनों पिण्डियों के दर्शन किए। इस गुफा में बहुत ठण्डा पानी बहता है। लोग झुकझुक कर इस मन्दिर की गुफा में जाते हैं। दर्शन करके दूसरे मार्ग से बाहर जाते हैं। दर्शन करके हम लोग वापिस धर्मशाला में आए और लगभग चार घंटे तक इस तीर्थ स्थल में ठहरने के बाद पुन: वापिस चल पड़े। कटरा में भी हमने विश्राम नहीं किया तथा सीधे बस पकड़ कर जम्मू आ गए। यहां से हमने यात्रा बस से ही की और फिर अपने शहर जालन्धर पहुंचे। माता के जयकारे लगाते हुए हम अपने अपने घरों की ओर चल दिए।

वास्तव में इस प्रकार की ऐतिहासिक, धामिक एवं पर्वतीय यात्रा अनेक प्रकार से महत्त्वपूर्ण है। एक तो इस यात्रा में सभी लोग सभी भेद-भाव भुलाकार साथ चलते हैं और निडर हो कर यात्रा करते हैं। दूसरी ओर यात्रा की दृष्टि से और भ्रमण करने की दृष्टि से इस यात्रा का अपना विशेष आनन्द और महत्त्व है। सचमुच पैदल चलकर यात्रा का आनन्द लेना कहीं अधिक मनोरंजक होता है।

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Essay on Parvatiya Yatra in Hindi 1000 words

भारतवर्ष जितना विशाल है उतना ही सुन्दर, विलक्ष्ण और आकर्षक भी। प्रकृति ने जैसे फुरसत से इसे सजाया और संवारा है। हिमालय, संसार का सबसे ऊंचा पर्वत यहां पर स्थित है। इसकी हिम-मंडित चोटियां, भव्य और मनोरम हैं। हिमालय के आसपास अनेक सुन्दर, और स्वर्गिक पर्यटन स्थल हैं। यहां देश विदेश से हजारों सैलानी यात्रा और पर्यटन के लिए आते हैं। विगत वर्ष मुझे हिमालय के मध्य भाग में स्थित पर्वतीय पर्यटन स्थल मनाली जाने का अवसर प्राप्त हुआ। यह नगर हिमाचल प्रदेश में स्थित है। मैंने अन्य कई पर्यटन स्थलों आदि को भी देखा है, परन्तु मनाली तो सचमुच स्वर्ग जैसा सुन्दर है। यहां आकर जो संतोष और आनन्द मिलता है अन्य कहीं नहीं। इसे पर्वत-स्थलों की महारानी नाम उचित ही दिया गया है। हिमाचल में अनेक पर्यटन व यात्रा के आकर्षण हैं। परन्तु मनाली इसमें शीर्ष स्थान पर है।

सितम्बर का महीना था और स्कूल की छुट्टियां। मैं अपने परिवार के साथ अपनी टाटा सफारी गाड़ी में मनाली गया। मेरे माता-पिता और छोटी बहिन के अतिरिक्त एक नौकर भी साथ था। सारे रास्ते खाते-पीते, गीत-संगीत का आनन्द लेते, जोक्स और चुटकुले सुनाते-सुनाते आगे बढ़ते गये। हमने रात को चंडीगढ़ एक होटल में विश्राम किया और फिर अगले दिन जल्दी सुबह मनाली के लिए निकल पड़े। वहां से आगे सारा रास्ता बडा मनोरम और प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर है। दोनों ओर ऊंचे-ऊंचे पहाड़, हिम-मंडित पर्वत शिखर, देवदार और चीड़ के वृक्ष, कलकल करते झरने, उफनती नदियां, गांव, खेत और सेब के बगीचे सब को देख कर मन ठगा-सा रह जाता है। कहीं मार्ग के एक ओर गहरे खड्डे, तेज ढलान वाली छत्त जैसी पहाडियों आदि को देखकर भय भी लगता है।

बिलासपुर मंडी होते हुए हम कुल्लू पहुंचे और फिर शाम को मनाली। कुल्लू से मनाली 40 किलोमीटर दूर 1830 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। व्यास नदी के तटों पर बसे मनाली का सौन्दर्य व आकर्षण एक प्राकृतिक वरदान है। यहां पर कई दर्शनीय स्थान हैं। कुल्लू राजाओं का इष्टदेवी हिडिम्बा का यहां एक अत्यन्त प्राचीन मन्दिर है। हिडिम्बा महाभारत के महान् वीर भीम की पत्नी और घटोत्कच की माता थी। यह बहुत वीर, पराक्रमी और मायावी देवी थी। हिडिम्बा का मन्दिर चारों ओर से ऊंचे-ऊंचे सीडर के विशाल वृक्षों से घिरा है। पगोडा शैली में निर्मित देवी का काठ का मन्दिर बड़ा सुन्दर है। यहां मैंने एक याक की सवारी भी की। मैंने इसका बडा आनन्द लिया।

ब्यास नदी के किनारे एक सुन्दर पार्क भी यहां पर स्थित है। यहां ब्यास नदी के तट पर बैठकर उफनती, उछलती नदी को निहारना, उसकी गुरु गंभीर गर्जना को सुनना बड़ा अच्छा लगता है। पार्क में और भी कई आकर्षण हैं। उत्तर पूर्व में वशिष्टी का सुरम्य स्थान है। यह अपने गर्म पानी के झरनों के लिए विख्यात है। यहां स्नान करना बड़ा आनन्दमय रहता है।

मनाली रोहतांग दर्रे का द्वार कहा जाता है। इस दर्रे के उस पार लाहौल और स्पीति की प्रसिद्ध परन्तु दुर्गम घाटियां हैं। शीतकाल में मनाली और रोहतांग के बीच पर्वतीय ढलान पूरी तरह बर्फ से ढक जाते हैं और ”स्कीइंग” के लिए काम में आते हैं। हम रोहतांग दर्रे भी गये। मार्ग में रोहिल्ला झरने भी दिखे। यह मनाली से 16 किलोमीटर दूर है। रोहतांग पास मनाली से 25 किलोमीटर दूर है और 4000 मीटर ऊंचा है। यहां अगस्त में भी कंपकपा देने वाली ठंड थी।

मार्ग में कई छोटे-बड़े झरने देखने को मिलते हैं। कई छोटी-छोटी नदियां तथा नाले भी ब्यास नदी में आकर मिलते हैं। सारे रास्ते इनका कल-कल शोर बड़ा अच्छा लगता है। रोहतांग के उत्तर में कुछ दूरी पर ब्यास नदी का उद्गम स्थान ब्यास कुंड देखा जा सकता है। यहां पर घुड़सवारी का भी आनन्द लिया जा सकता है। घोड़ों पर सवार होकर ब्यास कुंड की सैर की जा सकती है। कहा जाता है कि महाभारत युग में महाऋषि ब्यास ने यहीं पर तपस्या की थी। इन्हीं के नाम पर इस नदी का नाम ब्यास पड़ा है।

मनाली से लौटते हुए हम कुल्लू में भी रुके। दशहरे का दिन थे और यहां एक विशाल मेला लगा हुआ था। मेले में कई आकर्षण थे। यहां पर भगवान रघुनाथ की सवारी आकर्षण का मुख्य केन्द्र थी। दूसरे अनेक देवी-देवताओं की सवारियां भी मेले में आई हुई थीं। रात को मेले में बहुत सुन्दर सांस्कृतिक कार्यक्रम देखने को मिले। इनसे हिमाचल की समृद्ध लोक-संस्कृति व सभ्यता का पता चलता है। मेले में कई प्रकार की सुन्दर वस्तुएं बिक रही थीं। हिमाचल के शाल और ऊनी वस्त्र तो बहुत प्रसिद्ध हैं। सेबों के लिए भी हिमाचल विश्व प्रसिद्ध है।

एक दिन हम मनीकर्ण भी गये। यह एक अत्यन्त पवित्र और प्रसिद्ध तीर्थस्थल है। यह कुल्लू से 45 किलोमीटर दूर पार्वती नदी के किनारे बसा है। यहां के गर्म पानी के स्रोत और झरने बहुत विख्यात हैं। यहां रामचन्द्र जी का एक विशाल मन्दिर है। मन्दिर और गांव में जाने के लिए छोटे से पुल को पार करके जाना पड़ता है। मनीकर्ण के साथ एक बहुत सुन्दर किंवदन्ती जुड़ी हुई है। कहा जाता है कि एक बार पार्वती और महादेव यहां भ्रमण कर रहे थे। तभी पार्वती ने स्नान करने की इच्छा प्रकट की। स्नान करते समय पार्वती ने अपने कर्णफूल पास की एक शिला पर रख दिये। तभी सर्यों के देवता ने इन कर्णफूलों को चुरा लिया लेकिन महादेव के कोप से भयभीत होकर नाग ने पार्वती के कर्णफूल लौटा दिये। ये उसने अपने नथूने में छिपा रखे थे। अपने बिल में छिपे नाग ने इतने जोर से निश्वाप छोड़ा कि कर्णफूल बाहर आ गिरे और पर्वत में से एक गर्म पानी का झरना फूट पड़ा। इस घटना के कारण ही इस स्थान का नाम मनीकर्ण पड़ गया। मनी (मणि) का अर्थ है बहुमूल्य रत्न और कर्ण का अर्थ है कान। इस तरह इस तीर्थ स्थल का नाम हुआ “कान का बहुमूल्य रत्न”। मनाली की सैर का अनुभव मैं कभी भूल नहीं सकता।

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