Essay on Self Dependence in Hindi स्वावलंबन पर निबंध

Essay on Self Dependence in Hindi language. स्वावलम्बन पर निबंध (आत्मनिर्भरता)। Let’s talk about what is self dependence? Basic meaning of self dependence is ‘Independent’. It means reliance on yourself rather than on others.

hindiinhindi Essay on Self Dependence in Hindi

Essay on Self Dependence in Hindi

विचार बिंदु – अर्थ – आत्मनिर्भर व्यक्ति का सुख • स्वतंत्रता • अपनी इच्छाओं का स्वामी • समाज से लेन-देन बराबर • सहायता लें तो देने के योग्य भी बनें।

आत्मनिर्भरता का अर्थ है – स्वयं अपने भरोसे जीना। अपने जीवन के लिए शक्तियाँ स्वयं जुटाना। अपने लिए पर्याप्त साधन स्वयं जुटाना। अपने जीवन-यापन के लिए दूसरों का सहारा न लेना। आत्मनिर्भर व्यक्ति जीवन का सच्चा सुख प्राप्त करता है। उसे दूसरों की ओर चाह-भरी नज़रों से देखना नहीं पड़ता। दूसरों से सहायता माँगना परतंत्रता है। परतंत्र व्यक्ति को अपनी आत्मा को दबाना पड़ता है। इच्छाओं को अनसुना करना पड़ता है। जबकि आत्मनिर्भर व्यक्ति सच्चे अर्थों में स्वतंत्र होता है। वह अपनी इच्छा का स्वामी होता है। अत: व्यक्ति को परिश्रम करके आत्मनिर्भर बनने का प्रयास करना चाहिए। प्र्शन उठता है कि क्या कोई व्यक्ति दूसरों की सहायता के बिना जी सकता है?

उत्तर है – ‘नहीं।’ वास्तव में आपसी संबंधों में लेन-देन बराबर होना चाहिए। अगर आप किसी से सहायता लेते हों तो उसकी सहायता करने में भी सक्षम हों। इसके लिए आवश्यक है कि हम किसी काम में दक्ष हों। चाहे वह रक्षा कार्य हो, चाहे सेवाकार्य हो, चाहे धन की समृद्धि हो। हम तन से, मन से, धन से-किसी तरह औरों के काम आ सकें। ऐसा व्यक्ति आत्मनिर्भर कहलाता है। वह किसी पर बोझ नहीं होता।

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स्वावलंबन और आत्म-निर्भरता, दोनों का वास्तविक अर्थ है – अपना अवलंब अर्थात आश्रय अथवा सहारा बनना। किसी दूसरे पर आश्रित न रह कर अपने-आप पर निर्भर अथवा आश्रित रहना। इस तरह दोनों शब्द परावलंबन या पराश्रिता त्याग कर, स्वयं परिश्रम करके हर तरह के दुख-कष्ट सह कर भी अपने पैरों पर खड़े रहने की शिक्षा और प्रेरणा देने वाले शब्द है।

संसार में परावलंबी अर्थात् दूसरों पर आश्रित होना अथवा दूसरों पर निर्भर रहना एक प्रकार का पाप, सर्वाधिक हीन कर्म और आदमी के अंत:-बाह्य व्यक्तित्व को एकदम हीन तथा बौना बना कर रख देने वाला है। पराश्रित अथवा परावलंबी को हमेशा आश्रय देने वालों के अधीन बन कर रहना पड़ता है। उनके इशारों पर नाचने की विवशता और बाध्यता रहती है। उनकी अपनी इच्छा पहले तो होती ही नहीं, होने पर भी उसका कोई मूल्य और महत्त्व नहीं रह जाता। वह चाह कर भी उसके अनुसार न तो कार्य ही कर सकता है और न उसे कभी पूर्ण होते हुए ही देख सकता है। तनिक-सी इच्छा और बात के लिए उसे पराया मुँह देखना पड़ता है। स्वयं की इच्छाओं का दमन करना पड़ता है। इसी कारण पराधीनता अथवा परावलंबन को घोर पाप और निकृष्टता माना गया है। इसके विपरीत स्वाधीनता एवं स्वावलंबन को स्वर्ग का द्वार, पुण्य-कार्यों का परिणाम और हर तरह से श्रेष्ठ स्वीकार किया गया है।

स्वावलंबी व्यक्ति ही सही अर्थों में अनुभव कर पाता है कि दुख-पीड़ा क्या होते हैं और सुख-सुविधा का क्या मूल्य एवं महत्त्व, कितना आनंद और आत्मसंतोष होता है। संसार और समाज में व्यक्ति का क्या मूल्य और महत्त्व होता है, मान-सम्मान किसे कहते हैं, अपमान की पीड़ा क्या होती है, अभाव किस तरह से व्यक्ति को मर्माहत कर सकते हैं, इस तरह की बातों का यथार्थ भी वास्तव में आत्मनिर्भर व्यक्ति ही जान-समझ सकता है। परावलंबी को तो सदैव मान-अपमान की चिंता छोड़कर हीनता के बोध से परे रह कर, व्यक्ति होते हुए भी व्यक्तित्त्वहीन बनकर जीवन गुजार देना पड़ता है। व्यक्तित्वहीन जीवन वास्तव में निरीह पशु और कीड़े-मकोड़े से ज्यादा महत्त्व नहीं रख पाता। सच्चाई यह है कि कोई भी व्यक्ति अपने को दीनहीन बनाए रखना नहीं चाहता। सरल, सहज मानव बनकर रहने, मानवीय गरिमा और सम्मान पाने की भूख हर मनुष्य में जन्मजात रूप से विद्यमान रहती है। स्वावलंबी होने का यह तात्यपर्य नहीं कि आदमी के पास बड़े-बड़े ऊँचे-ऊँचे राजमहल हो, अपार धन-संपत्ति हो, क्योंकि ऐसा होने पर भी यदि अपने पर, अपने कार्यों एवं गतिविधियों पर अपना अधिकार नहीं तो उस सबका होना व्यर्थ है। अपनी स्वतंत्रता और इच्छानुसार कार्य करके अपने साथ-साथ आस-पड़ोस, गली-मुहल्ले, समाज और पूरे देश का हित किया जा सकता है। एक स्वतंत्र और स्वावलंबी व्यक्ति ही मुक्त भाव से सोच-विचार करके उपयुक्त कदम बढ़ा सकता है। उसके द्वारा किए गए परिश्रम से बहने वाली पसीने की प्रत्येक बूंद मोती के समान बहुमूल्य होती है। जिसे सच्चा सुख एवं आत्म संतोष कहा जाता है, वह केवल आत्मनिर्भर व्यक्ति को ही प्राप्त होता है। इन्हीं सब तथ्यों का ध्यान रखते हुए कविवर मैथिलीशरण गुप्त ने ‘साकेत’ में एक पंक्ति कही है:

“स्वावलंबन की एक झलक पर न्यौछावर कुबेर का कोष।”

अर्थात् स्वावलंबन अथवा आत्मनिर्भरता से भरे सामान्य स्तर पर जिए जाने वाले जीवन पर भी कुबेर का खजाना न्यौछावर किया जा सकता है। आत्मनिर्भर व्यक्ति ही आत्मचिंतन करके अपने इस लोक के साथ परलोक का सुधार भी कर सकता है। ऐसा व्यक्ति ही जीवन-समाज के अन्य लोगों के लिए आदर्श और उदाहरण बन सकता है। बगदाद के खलीफा उमर आत्मनिर्भर रहने के लिए ही अपने महल में चटाइयाँ बुनकर उससे होने वाली आय से अपना गुजारा किया करते थे। संत कबीर कपड़ा बुनकर अपना तथा परिवार का भरण-पोषण किया करते थे, जबकि गुरु नानक देव अपने पुत्रों की नाराज़गी मोल लेकर भी धर्मशाला (गुरुद्वारे) के चढ़ावे को हाथ नहीं लगाते थे। वह स्वयं हल जोत और खेती कर के घर-परिवार का पालन करने पर विश्वास किया करते थे। श्री कृष्ण का गाय चराना, संत रैदास और दादूदयाल का जूते गाँठना जैसे कार्य निश्चय ही आत्मनिर्भरता एवं स्वावलंबी बनने की प्रेरणा देने वाले हैं।

आज का व्यक्ति अधिक-से-अधिक धन और सुख के साधन तो चाहता है; पर दूसरों को लूटकर और उसका शोषण करके अपने परिश्रम और स्वयं अपने-आप पर विश्वास एवं निष्ठा रखकर नहीं। यही कारण है कि आज का व्यक्ति स्वतंत्र हो कर भी परतंत्र और दुखी है। इस स्थिति से छुटकारा पाने का केवल एक-ही-उपाय है और वह है स्वावलंबी एवं आत्मनिर्भर बनना, अन्य कोई नहीं।

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