Essay on Shaheed Udham Singh in Hindi

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Essay on Shaheed Udham Singh in Hindi

“ऊधम सिंह ने लंदन जाके,
ऐसा ऊधम मचाया था।
न की परवाह अपनी,
गोरों का देश हिलाया था।
कैसे भूल सकते हैं,
हम उनकी कुर्बानी को?
शत-शत नमन है हमारा,
उनकी अमिट कहानी को।”

भूमिका

आजादी जैसे अमूल्य धन को प्राप्त करने के लिए बलिदान की आवश्यकता होती है। यहां का कण-कण बलिदान की प्रेरणा देता है। आज जिस स्वतंत्रता का हम आनन्द ले रहे हैं, उसकी प्राप्ति का श्रेय उन देशभक्तों को है, जिन्होंने अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया। देश-भक्ति के पथ पर बढ़ते उन्होंने कभी अपनी चिंता नहीं की। ऐसे ही अमर शहीदों में सरदार ऊधम सिंह का नाम अग्रणी है।

जन्म और माता-पिता

ऊधम सिंह का जन्म 26 दिसम्बर, 1899 को जिला संगरूर के सुनाम शहर में हुआ था। ऊधम सिंह के पिता का नाम सरदार टहल सिंह कम्बोज और माता का नाम नारायण कौर था।

जीवन परिचय

ऊधम सिंह बचपन से बहुत ही निडर स्वभाव के बालक थे। ऊधम सिंह के बचपन का नाम शेर सिंह था। सरदार ऊधम सिंह का एक और भाई था जिसका नाम साधु सिंह था। गुलेल चलाना, चिड़ियों को मारना, गड्ढा खोदकर जानवरों को फंसाना, कुश्ती लड़ना इनके बचपन के खेल थे। सरदार ऊधम सिंह का बचपन बहुत ही मुसीबतों में व्यतीत हुआ। जब वे अढाई वर्ष के थे तभी इनका माता का देहांत हो गया था। बच्चों का भविष्य न बिगड़े, यह सोचकर पिता टहल सिंह ने दूसरा विवाह नहीं किया। वे सरकारी नौकरी करते थे और बाकी समय इन बच्चों के लालन-पालन में लगाते।

पढ़ाई-लिखाई

जब बच्चे स्कूल जाने के योग्य हुए तो आसपास कोई स्कूल नहीं था। पड़ोस के एक पंडित जी इन बच्चों को पढ़ाने घर ही आते थे। ऊधम सिंह की तेज बुद्धि को देखकर पंडित ने पिता टहल सिंह को सलाह दी “इन बच्चों का किसी अच्छे स्कूल में नाम लिखा दें किंतु पिता ने अपनी असमर्थता जताई।” फिर पंडित जी की सलाह से पिता टहल सिंह ने अपनी बदली अमृतसर के रेलवे स्टेशन पर करवा ली और दोनों बच्चे स्कूल जाने लगे।

एक दिन अचानक उनके पिता का भी देहांत हो गया। दोनों बच्चे अकेले रह गए। उनके स्कूल के एक अध्यापक पं. जयचंद्र शर्मा ने दोनों बालकों को एक अनाथालय में भर्ती करवा दिया। दोनों बच्चे अनाथालय से स्कूल आते रहे। कुछ देर बाद ऊधम सिंह के बड़े भाई साधु सिंह को अनीमिया हो गया और एक दिन वह भी स्वर्ग सिधार गया। अब ऊधम सिंह अकेला रह गया। शर्मा जी ही ऊधम सिंह का सहारा बने। कुछ दिन उन्होंने उन्हें अपने घर रखा एवं उनकी पढ़ाई-लिखाई का प्रबंध करते रहे। इस प्रकार ऊधम सिंह का बचपन अभावों एवं घोर मुसीबतों में बीता।

देशभक्ति के पथ पर

13 अप्रैल 1919 की घटना है। उस दिन वैशाखी का पवित्र त्योहार था। उसी दिन पंजाब के अमृतसर जिले के जलियांवाला बाग में एक विशाल सभा आयोजित की गई थी जिसमें सरदार ऊधम सिंह उर्फ शेर सिंह शामिल था। जनरल ओडवायर के आदेश से सैनिकों ने बाग को चारों ओर से घेर लिया। पापी डायर ने सैनिकों को गोली चलाने का आदेश दे दिया। बस पलक झपकते ही हजारों लोग गोलियों से भून दिए गए। किसी तरह सरदार उधम सिंह ने अपनी जान बचाई। इस नरसंहार को देखकर उनका दिल काँप उठा और खून खौल उठा। उन्होंने इस नरसंहार के दोषियों से बदला लेने की प्रतिज्ञा कर ली।

जलियांवाले बाग के हत्याकांड का बदला लेना :

सरदार ऊधम सिंह लंदन पहुंच गए। लंदन में उन्होंने अपना नाम बदलकर उदय सिंह रख लिया। अब वह माइकल ओडवायर और लार्ड जेटलैंड के पीछे लग गए। बस, मौके की तलाश थी। आख़िर एक ऐसी घड़ी आई जब वे दोनों एक जलसे में एक साथ आए थे। यह 13 मार्च, 1940 का दिन था। ऊधम सिंह उस दिन वकील की वेशभूषा में जलसे में जाकर बैठ गए। जनरल डायर ने जैसे ही भाषण समाप्त किया तभी ऊधम सिंह उठे, अपनी पिस्तौल निकाली और उसे गोली मार दी। पीछे मुड़कर पास बैठे सर जेटलैंड को भी गोली मार दी। भारत के क्रांतिकारियों ने खूब खुशियाँ मनाईं। इस घटना से अंग्रेज सरकार की जड़ें हिल गईं। 21 साल बाद ऊधम सिंह की प्रतिज्ञा पूरी हो गई।

फाँसी

ऊधम सिंह पर लंदन की अदालत में मुकदमा चला और उन्हें फाँसी की सजा हो गई। 31 जुलाई, 1940 को भारत के इस शेर को फाँसी पर लटका दिया गया।

उपसंहार

देश की आजादी के लिए जिस तरह का बलिदान ऊधम सिंह ने दिया, वह संसार में एक आदर्श है। यह देश हमेशा वीर सपूत का ऋणी रहेगा, जिसने केवल देश की आजादी के लिए ही जन्म लिया था।

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