Essay on Subhash Chandra Bose in Hindi सुभाष चन्द्र बोस पर निबंध

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Essay on Subhash Chandra Bose in Hindi

सुभाष चन्द्र बोस पर निबंध

‘नेताजी’ के नाम से विख्यात सुभाष चंद्र बोस एक महान् नेता थे। जिनके अन्दर देश-भक्ति का भाव कूट-कूट कर भरा हुआ था। राष्ट्र के प्रति उनके समर्पण भाव व बलिदान के लिए राष्ट्र सदैव ही उनका ऋणी रहेगा। नेता जी स्वामी विवेकानन्द के दर्शन से पूरी तरह प्रभावित थे।

नेताजी का जन्म सन् 1897 ई. के जनवरी माह की 23 तारीख को एक धनी परिवार में हुआ था। उनके पिता एक प्रसिद्ध वकील थे। नेता जी बाल्यावस्था से ही अति कुशाग्र बुद्धि के थे। अपने विद्यार्थी जीवन में वे सदैव प्रथम रहे। उन्होंने अपनी स्नातक परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की तथा इसके पश्चात् उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड चले गए। वहां उन्होंने विख्यात कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में प्रवेश ले लिया। अपने पिता जी की इच्छा का सम्मान रखने के लिए उन्होंने ‘आई. सी. एस.’ की परीक्षा उत्तीर्ण की जो उन दिनों अत्याधिक सम्माननीय समझी जाती थी। परन्तु उन्होंने तो देश सेवा का प्रण लिया हुआ था अत: उच्च अधिकारी का पद उन्हें रास नहीं आया जिसके फलस्वरूप उन्होंने त्यागपत्र दे दिया और स्वतन्त्रता संग्राम में कूद पड़े।

देश को अंग्रेजी दासता से मुक्त कराने का सपना संजोए नेता जी कांग्रेस के सदस्य बन गये। सन् 1939 ई. को उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्षता सम्भाली परन्तु गाँधी जी के नेतृत्व के तरीके तथा अन्य वैचारिक मतभेद के चलते उन्होंने अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया। वे गाँधी जी के अहिंसा के मार्ग से पूर्ण रूप से सहमत नहीं थे। सुभाष चंद्र बोस का मत था कि अनुनय-विनय और शांतिपूर्ण संघर्ष के रास्ते पर चलकर भारत को स्वतन्त्र कराने में काफी समय लगेगी और तब तक देश शोषित और पीड़ित होता रहेगा। वे कांग्रेस के माध्यम से देश में एक उग्र क्रांति लाना चाहते थे।

अंग्रेजों को देश से उखाड़ फेंकने के लिए उन्होंने अन्य राष्ट्रों से सहायता लेने का फैसला किया। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान वे देश से निकलने में सफल रहे तथा जर्मनी पहुँचकर ‘हिटलर’ के सहयोगियों से अंग्रेजों के विरुद्ध सहयोग पर चर्चा की। “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा” का प्रसिद्ध नारा नेता जी द्वारा दिया गया था। उनकी वाणी व भाषण में इतना ओज़ होता था कि लोग उनके लिए पूर्ण समर्पण हेतु सदैव तैयार रहते थे।

जर्मनी से पर्याप्त सहयोग न मिल पाने पर नेता जी जापान आ गए। यहाँ उन्होंने कैप्टन मोहन सिंह एवं रासबिहारी बोस द्वारा गठित आजाद हिंद फौज की कमान सम्भाली। इसके पश्चात् आसाम की ओर से उन्होंने भारत में राज कर रही अंग्रेजी सरकार पर आक्रमण कर दिया। उन्हें अपने लक्ष्य में थोड़ी सफलता भी मिली परन्तु दुर्भाग्यवश विश्व युद्ध में जर्मनी और जापान की पराजय होने से उन्हें पीछे हटना पड़ा। वे पुन: जापान की ओर हवाई जहाज से जा रहे थे कि रास्ते में जहाज के दुर्घटनाग्रस्त हो जाने से उनकी मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु के साथ ही राष्ट्र ने अपना एक सच्चा सपूत खो दिया। इस दुर्घटना का स्पष्ट प्रमाण न मिल पाने के कारण वर्षों तक यह भ्रांति बनी रही कि शायद सुभाष जी जीवित हैं। सत्य की जाँच के लिए बाद में आयोग गठित किया गया जिसका कोई निष्कर्ष आज तक नहीं निकल पाया है। अत: वायुयान दुर्घटना की बात ही सत्य के अधिक करीब लगती है।

नेताजी का बलिदान इतिहास के पन्नों पर अमर है। उन्होंने राष्ट्र के सम्मुख अपने स्वार्थों को कभी आड़े आने नहीं दिया। उनकी देशभक्ति और त्याग की भावना सभी देशवासियों को प्रेरित करती रहेगी। स्वतन्त्रता के लिए उनका प्रयास राष्ट्र के लिए उनके प्रेम को दर्शाता है। हमारा कर्तव्य है कि हम उनके बलिदान को व्यर्थ न जाने दें और सदैव देश की एकता, अखंडता व विकास के लिए कार्य करते रहें।

देश की स्वतन्त्रता के लिए भारतीयों ने जिस महायज्ञ को आरम्भ किया था उसमें अपने जीवन की आहुति देने वाले, भारत माता के सपूतों में सुभाष चन्द्र बोस का नाम भारतवासी श्रद्धा से याद करते हैं। वीर पुरुष एक ही बार मृत्यु का वरण करते हैं लेकिन वे अमर हो जाते हैं। उनके यश और नाम को मृत्यु नहीं मिटा सकती। सुभाष चन्द्र बोस ने भारत की परतन्त्रता की बेड़ियों को काटने के लिए जो मार्ग अपनाया वह सर्वथा अलग था।

यद्यपि सुभाष चन्द्र बोस स्वतन्त्रता का सूर्य देखने से पहले ही चल बसे लेकिन गुलामी की अंधेरी रात को उन्होंने ही चीरा था। उन्होंने सदैव स्वतन्त्रता संघर्ष में क्रान्तिकारियों का मार्गदर्शन किया। क्रान्ति दूत सुभाष चन्द्र बोस भारतीय लोगों के लिए सदैव वन्दनीय रहेंगे। उनका यशोगान इतिहास सदैव करता रहेगा। देश की स्वतन्त्रता के लिए किया गया उनका संघर्ष, त्याग और बलिदान इतिहास को प्रकाशमान करता रहेगा।

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भूमिका

मुझे तोड़ लेना वनमाली, उस पथ पर तुम देना फेंक।
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने, जिस पथ जावें वीर अनेक॥

‘पुष्प की अभिलाषा’ कविता में कवि की भावना इन शब्दों में प्रकट होती है और मातृभूमि के सपूतों की अभिलाषा को प्रकट करती है। देश की स्वतंत्रता के लिए भारतीयों ने जिस महायज्ञ को आरम्भ किया था उसमें अपने जीवन की आहुति देने वाले, माँ भारती के सपूतों में सुभाष चन्द्र बोस का नाम भारतवासी श्रद्धा से याद करते हैं। वीर पुरुष एक ही बार मृत्यु का वरण करते हैं लेकिन वे अमर हो जाते हैं उनके यश और नाम को मृत्यु मिटा नहीं सकती है। सुभाष चन्द्र बोस ने भारत की परतंत्रता की बेड़ियों को काटने के लिए जे मार्ग अपनाया वह सर्वथा अलग था।

जीवन परिचय

उड़ीसा राज्य के कटक जिले के कोड़ोलिया ग्राम में मां प्रभावती की कोख से 20 जनवरी सन् 1897 में रायबहादुर जानकी नाथ के पुत्र बालक सुभाष के जन्म हुआ। गौर वर्ण, सुन्दर शिशु को अत्यंत लाड़-प्यार से पाला गया। लेकिन शैशव से ही बालक अत्यंत गंभीर था। साधारण बच्चों की भान्ति खेलना उसे पसंद नहीं था। उसक मन अत्यंत ही कोमल था और दूसरों के दुःखों से पीड़ित हो जाता था। अपने हिस्से की रोटियों में से भिखारियों को, भूखों को रोटी खिला देना, जाजपुर गांव में हैजा फैलने पर रोगियों की सेवा में जुट जाना, इस बच्चे के भविष्य को बताते थे। बचपन से ही उन्हें अंग्रेज़ी की प्रति घृणा थी। सुभाष की प्राथमिक शिक्षा यूरोपियन स्कूल में ही आरम्भ हुई। कलकत्ता विश्व विश्वविद्यालय की मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे प्रेसीडेंसी कालेज में गए। इसी कॉलेज में अंग्रेज़ प्रौफेसर ओटेन ने जब भारतीयों का अपमान किया तो सुभाष ने कक्षा में ही उसे थप्पड़ मार दिया। परिणास्वरूप सुभाष को कॉलेज से निकाल दिया। उनके इस व्यवहार से उनके पिता दुःखी हुए पर सुभाष ने अपने इस कार्य को सदैव उचित माना।

सुभाष स्वामी विवेकानन्द के भाषण को सुनकर एक बार इतना प्रभावित हुए थे कि घर छोड़कर सत्य की खोज में भ्रमण करते रहे। अनेक स्थानों पर भटकते हुए उन्होंने जल साधु -संन्यासियों के व्यवहार देखे तो निराश होकर वे घर लौट आए। खोए हुए पुत्र के पाकर माता-पिता हर्ष से झूम उठे।

प्रेसिडेंसी कॉलेज से निकाले जाने के बाद सुभाष ने स्कॉटिश चर्च कॉलेज में प्रवेश लिया और कलकत्ता विश्व विद्यालय से बी. ए. आनर्स की उपाधि प्राप्त की। पिता ने इस पश्चात सुभाष को आई. सी. एस. की प्रतियोगिता में बैठने के लिए लन्दन के कैम्ब्रिज कॉलेज में भेज दिया। यद्यपि सुभाष इसके लिए सहमत नहीं थे लेकिन पिता की आज्ञा के समुख उन्हें झुकना ही पड़ा। आठ महीने की अवधि में ही सुभाष ने यह परीक्षा पास कर ली। लेकिन विदेशी सत्ता के अधीन कार्य करने से उन्होंने स्पष्ट इन्कार कर दिया। इस प्रकार अब पिता की इच्छा की परवाह न करते हुए सुभाष ने विद्रोह का बिगुल बजा दिया।

राजनीतिक जीवन

लंदन में रहते हुए भी सुभाष निरंतर देश की गुलामी के कारण संतप्त रहते थे और छटपटाते रहते। स्वदेश लौटने पर उन्होंने राजनीतिक स्थिति का अध्ययन किया। जलियांवाला बाग का हत्याकाण्ड, मांटेगू, लार्ड चेम्सफोर्ड और डायर के राक्षसी जुल्मों से भारतीय झुलस रहे थे। रौलट एक्ट ने देशवासियों पर वज्राघात किया। महात्मा गांधी की असहयोग आन्दोलन की अपील ने देश भर में तूफान मचा दिया। इस अपील से बंगाल के देशबन्धु चितरंजनदास ने अपना सर्वस्व देश को न्योछावार कर दिया। देशबन्धु से मिलने पर सुभाष की जीवन-दिशा ही बदल गई। सन् 1921 में सुभाष ने स्वयं-सेवकों के संगठन का कार्य आरम्भ किया तथा ‘अग्रगामी पत्र का सम्पादन भी किया। बंगाल सरकार ने राष्ट्रीय स्वयं सैनिक संगठनों को गैर कानूनी करार दे दिया और आज्ञा को भंग करने वालों ने जेल भेज दिया। सुभाष को भी छ: महीने की कारावास की सजा मिली। जेल से रिहा होने के पश्चात वे घर गए लेकिन उत्तरी बंगाल की भीषण बाढ़ ने उन्हें चैन से न बैठने दिया और वे तुरन्त ही बाढ़-पीड़ितों की सहायता एवं सेवा के लिए चल पड़े। इसी प्रकार स्वराज्य दल ने जब कलकत्ता के चुनाव में भारी विजय प्राप्त की तो सुभाष ने एक्जीक्यूटिव ऑफीसर के रूप में कलकत्ता को सुन्दर बनाने के लिए अभूतपूर्व कार्य कर अपनी योग्यता का परिचय दिया। लार्ड लिंटन के दमन चक्र का विरोध करने के अरोप में सुभाष को गिरफ्तार किया गया, बर्मा की मांडले जेल में भेज दिया गया। लेकिन स्वास्थ्य खराब होने के कारण इन्हें जेल से छोड़ दिया गया।

देशबन्धु की मृत्यु ने उन्हें अत्यंत पीड़ित किया। लेकिन उनके आदर्श और त्याग उनके जीवन के लिए मार्ग-दर्शक थे। स्वास्थ्य खराब होने पर भी वे चैन से नही बैठे रहे। मद्रास कांग्रेस अधिवेशन में सुभाष को राष्ट्रीय क्रांग्रेस का प्रधानमन्त्री नियुक्त किया गया। कलकत्ता अंग्रेस के अधिवेशन में महात्मा गांधी ने औपनिवेशिक स्वराज्य का प्रस्ताव पेश किया। सुभाष और गरमदल के अन्य लोग इससे सहमत नहीं थे लेकिन देश की आज़ादी को लक्ष्य मानते हुए नरम दल के साथ समझौते भी करना पड़ा। सुभाष की गतिविधियों से बिट्रिश सरकार बहुत आतंकित थी। अत: सुभाष को पुन: नौ महीने के कठोर कारावास की सजा दी गई। अलीपुर जेल में कैदियों पर किए जाने वाली अमानुषिक अत्याचार का उन्होंने घोर विरोध किया था और इसके परिणाम में उन्हें बेरहमी से पीटा गया। 1930 से उन्हें पुनः कानून भंग करने के आरोप से जेल भेज दिया गया। लेकिन जेल में सुभाष का स्वास्थ्य दिन प्रतिदिन बिगड़ता चला गया। स्वास्थ्य लाभ के लिए सुभाष को यूरोप जाने की अनुमति मिली लेकिन विदेश जाने से पूर्व क्रूर अंग्रेजी सरकार ने बीमार माता-पिता को भी उनसे मिलने की अनुमति नहीं दी।

विदेश में

वेनिस और विएना में कुछ दिन रहने के पश्चात् वे स्विट्जरलैण्ड की ओर बढ़े। इस अवस्था में भी वे शान्त बैठे नहीं रहे। रोम में उन्होंने विद्यार्थी सभा में भाषण दिए। पौलैण्ड में भी उन्होंने भारत की आज़ादी के लक्ष्य को लोगों के सामने रखा और लोगों की सहानुभूति प्राप्त की। जेनेवा, दक्षिणी, फ्रांस, मिलन और रोम, चेकोस्लेवाकिया, आस्ट्रिया में रहकर भी सुभाष अपने तूफानी क्रार्यक्रम चलाते रहे और स्वतंत्रता की मशाल जलाते रहे। इस दौर में उन्होंने ‘इण्डियन स्ट्रगल’ पुस्तक भी लिखी। विदेश से जब वे वापस आए तो पिता का देहावसान हो गया। बीमारी के कारण उन्हें पुन: विदेश जाना पड़ा। इस दौर में भी उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अनेक असाधारण कार्य किए। बर्लिन में उन्होंने हिटलर से भेंट की। वे मुसोलिनी से भी मिले। फ्रांस और लंदन भी गए। देश प्यार का दीवाना पुन: देश के लिए चल पड़ा परन्तु देश की धरती पर पैर रखते ही गिरफ्तार कर लिया गया। लेकिन जब सारे देश में आक्रोश और अशान्ति की लहरें उठने लगी तो पुन: सुभाष को बिना शर्त रिहा कर दिया गया। इस समय कांग्रेस में तीव्र मतभेद उत्पन्न हो गए थे। सुभाष ने गांधी जी की इच्छा की भी अवहेलना की और कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए गांधी के उम्मीदवार के विरोध में स्वयं खड़े हो गए जिस में गांधी के उम्मीदवार सीतारमैया की करारी हार हुई। और यह हार गांधी की हार बन गई। कुछ समय पश्चात् गांधी और सुभाष बाबू में मतभेद गहरे होते गए अत: सुभाष ने त्यागपत्र दे दिया और अग्रगामी दल का गठन कर लिया।

‘फारवर्ड ब्लाक’ की गतिविधियों, सत्याग्रह प्रदर्शनों से भयभीत होकर सुभाष को गिरफ्तार कर लिया गया। सुभाष ने जेल में आमरण अनशन की घोषणा कर दी। अत: सरकार ने जेल से इन्हें रिहाकर दिया और घर पर ही नजरबन्द कर दिया। नजरबन्दी के दौर में सुभाष ने घोषणा कर दी कि वे समाधिस्थ रहेंगे। लेकिन सुभाष योजना बनाते रहे कि किस प्रकार वे घर से बाहर भागे।

अन्त में अंग्रेजी सरकार की आँखों में धूल झोंकते हुए भेस बदल कर सुभाष घर से नजरबन्दी से भाग खड़े हुए। अब वे पेशावार से होते हुए काबुल पहुंचे। काबुल में भगतराम और उत्तमचन्द व्यापारी ने उनकी हर प्रकार से सहायता की और इटैलियन मन्त्री से उनकी मुलाकात करवाई। इसके बाद वे जर्मनी पहुंचे और तब बर्लिन रेडियो से उन्होंने घोषणा की और अपना संदेश प्रसारित किया। हिटलर से भेंटकर उन्होंने सहायता माँगी। इसके बाद उन्होंने तूफानी दौरा किया और भारतीय स्वतंत्रता के प्रति सहानुभूति रखने वाले लोगों से, नेताओं से मुलाकात करते रहे। जर्मनी में आकर उन्होंने ब्रिटिश सेना में भारतीय सैनिक जो जर्मनी के खिलाफ लड़ रहे थे से युद्ध बन्द करने की अपील की और उनकी अपील पर 4-5 हज़ार भारतीय सैनिकों ने आत्मसमर्पण किया था। यही अवसर था जब सुभाष ने आज़ाद हिन्द फौज का गठन किया और नारा दिया – तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा। इसके साथ उन्होंने रेडियो से प्रसारण किया जिससे सिंगापुर, जापान, मलाया,बर्मा और भारत में लोगों के मन में क्रान्ति की चिन्गारियाँ सुलगा दीं। विश्व के 19 राष्ट्रों ने आज़ाद हिन्द फौज को स्वीकार कर लिया था। इम्फाल और अराकान की पहाड़ियों में ‘दिल्ली चलो’ के नारे गूंज उठते थे। लेकिन जब युद्ध में जर्मनी की हार हो गई तो इसके साथ ही आज़ाद हिन्द के भाग्य के आकाश पर सदैव के लिए बादल छा गए। कहा जाता है कि जब वायुयान द्वारा 19 अगस्त 1945 को सुभाष बाबू जापान जा रहे थे तो उनका जहाज दुर्घटनाग्रस्त हो गया और सुभाष बाबू कहीं सदैव के लिए अदृश्य हो गए। उनकी मृत्यु की इस घटना पर आज भी अधिकांश लोग विश्वास नहीं करते हैं।

उपसंहार

यद्यपि सुभाष बाबू स्वतंत्रता का सूर्य देखने से पहले ही चल बसे लेकिन मी की अंधेरी रात को उन्होने ही चीरा था। क्रान्ति दूत सुभाष भारतीय लोगों के लिए सदैव वन्दनीय रहेंगे। उनका यशोगान इतिहास करता रहेगा। देश की आज़ादी के लिए किया गया उनका संघर्ष, त्याग और बलिदान इतिहास को प्रकाशमान करता रहेगा।

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