Essay on Indo China Relationship in Hindi भारत चीन संबंध पर निबन्ध

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Essay on Indo China Relationship in Hindi

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Essay on Indo China Relationship in Hindi 700 Words

भारत की राजनैतिक सोच और उसकी विदेश नीति की दिशा और दशा कुछ इस प्रकार निर्धारित की गई है कि वह अपने मित्र देशों के साथ-साथ अन्य तटस्थ अथवा अमित्र देशों को भी एक जैसे सम्मान और समानता का दर्जा देता रहा है। वस्तुतः हमने अपनी नीतियों को राजनैतिक-आर्थिक स्वार्थों और प्रतिर्पधाओं की भूमि पर विकसित और आधारित नहीं किया, और न प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से कभी इस प्रकार की कोई चेष्टा ही होने दी। भारत एक ऐसा देश है जिसने अपनी राजनीति, अर्थनीति और समाज-नीति को गहरे सांस्कृतिक एवं मानवीय मूल्यों पर अवलंबित किया है। भारत की राजनैतिक-आर्थिक चेतना उसकी अति प्राचीन और मानवीय सांस्कृतिक चेतना का का ही विस्तार है। आज भी इससे कोई अपनी असहमति नहीं दिखला सकता है। संभवत: भारत की इस उदारता को हमारे कुछ पड़ोसी देश उसकी कमज़ोरी और निर्बलता का चिन्ह मानते रहे हैं। इनमें पाकिस्तान और चीन प्रमुख हैं। इन्होंने अपनी घृणित मानसिकता और गुण्डागर्दी का परिचय देते हुए भारतीय सीमा रेखा के आस-पास की हजारों किलोमीटर की ज़मीन अनाधिकारिक रूप से अधिग्रहित कर ली है और जब भारत सरकार की ओर से इसका विरोध किया गया तो अनावश्यक रूप से भारत पर युद्ध थोपे गए। आज तक एक भी ऐसा प्रमाण नहीं मिलता जो यह सिद्ध करता हो कि भारत ने किसी अन्य पड़ोसी देश पर युद्ध थोपने का प्रयास किया हो।

सन् 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया। आकस्मिक रूप से पैदा हुई इस युद्ध की स्थितियों ने जहाँ एक ओर भारत की आर्थिक विकास की गति को धीमा किया, वहीं दूसरी ओर देश का अमूल्य धन युद्ध जैसी घृणित और विकृत स्थिति को संभालने तथा उससे राष्ट्रीय सम्मान को होने वाली हानि को रोकने हेतु पानी की तरह बहाना पड़ा। भारत ने स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही जिस विशिष्ट और महत्वपूर्ण जीवन-आदर्शों से युक्त राजनीति को ग्रहण किया गया था, उसमें सभी देशों के साथ पारस्परिक सौहार्द और सम्मिलित रूप से विकासयोजनाओं को कार्यान्वित करने पर बल दिया गया था। चीन भारत का एक ऐसा पड़ोसी देश है। जिसने सदैव भारत के प्रति वैमनस्य का भाव ही रखा है। 1962 का वह महाविनाशकारी युद्ध वस्तुत: उसी का परिणाम था।

जिस दिन वह युद्ध आरम्भ हुआ देश में एक अलग ही माहौल बन गया। सारा देश मानों राष्ट्रीय संकट एक समान रूप से महसूस कर रहा था। भारतीय समाज का प्रत्येक वर्ग इससे पूर्णत: चुका था। जो राजनैतिक दल कभी आपस में दुश्मनों की भांति लड़ा करते थे, वे एक मंच पर आ गए । सारा देश तन-मन-धन से इस आपदा से निबटने के लिए अर्पित कर देने के लिए तैयार था। गरीब से गरीब आदमी भी अपने हिस्से के धन को राष्ट्र-सेवा के लिए दे रहा था। हम उस संकट से भी वस्तुत: इसी कारण से उभर पाएं कि हमारा समस्त देश एकता के सूत्र में अचानक बंध गया और एकता जितनी बड़ी शक्ति होती है, उसकी तुलना किसी अन्य वस्तु से कभी भी नहीं की जा सकती।

चीन द्वारा सिक्किम पर अपना अधिकार घोषित कर देने के बाद ही युद्ध की यह अग्नि प्रज्वलित हो उठी थी। तत्कालीन कांग्रेस सभापति संजीव रेड़ी ने कहा भी था – “हमारे देश पर आक्रमण हुआ है। शत्रु ने हमारे देश की 12000 वर्ग मील भूमि पर कब्जा कर लिया है । यह हमारे देश की विषम समस्या है और हमें इसका सामना करना है।” युद्ध भारत की प्रवृत्ति नहीं है, किन्तु यदि कोई अपनी उददंडता के चलते, हम पर आक्रमण करने का दुस्ससाहस करता है, अथवा हम पर अनावश्यक युद्ध थोपता है, तो उसका मुंहतोड़ जवाब हमें देना आता है। इतिहास गवाह है कि इस प्रकार के तीखे और तिलमिलाकर रख देने वाले ज़वाब हमें देने आते हैं। फिर वह पाकिस्तान जैसा अदना सा देश हो, या फिर चीन जैसा अपने आप को महान मानने वाले देश।

29 जून सन् 1967 को तत्कालीन रक्षा मंत्री ने कहा था: भारतीय सेना चीन और पाकिस्तान जैसे अविश्वसनीय पड़ोसियों की साँठगाँठ का जबाब देने में पहले से अधिक समर्थ और सतर्क है। हम सशस्त्र हैं और हम पिछले वर्षों में खाली हाथ नहीं बैठे रहे। देश के गौरव और मर्यादा की रक्षा के लिए हमें और भी शक्ति संग्रह करना होगा, जिससे कोई भी शत्रु इधर आँख उठाकर भी न देख सके।”

वस्तुतः भारत द्वारा स्वयं को परमाणु-शक्ति संपन्न करना एक प्रकार की ऐतिहासिक मज़बूरी थी। किन्तु आज भी भारत पड़ोसी देशों के साथ मित्रता रखने का ही हामी है ताकि यूरोपीय देशों का एशिया पर दबाब ढीला पड़ सके। वैसे भारत-चीन संबंध वर्तमान समय में काफी बेहतर हुए हैं और इस दिशा में निरन्तर प्रयास भी हो रहे हैं।

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भारत-चीन संबंध : एक दृष्टि में

भारत और चीन को स्वतंत्रता लगभग थोड़े समय के अंतर पर ही प्राप्त हुई थी। चीन जहाँ ब्रिटिश परस्त च्यांग काई शेक के चंगुल से मुक्त हुआ वहीं भारत ब्रिटिश साम्राज्यवाद के चंगुल से स्वतंत्र हुआ। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद चीन जहाँ माओत्से तुंग की साम्यवादी विचारधारा वाला देश बन गया, वहीं भारत एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक राष्ट्र के रूप में उभरकर सामने आया।

यद्यपि जनसंख्या तथा विशालता अर्थात क्षेत्रफल के आधार पर चीन का आकर-प्रकार भारत से बड़ा है लेकिन भारत भी उससे पीछे नहीं रहा। दोनों देशों की सभ्यताएं बहुत पुरानी हैं। भारत और चीन के बीच व्यापारिक संबंध अत्यंत प्राचीन काल से ही रहे हैं। इतना ही नहीं, सबसे पहले बौद्ध धर्म का प्रभाव चीन पर ही पड़ा था। सम्राट अशोक के पुत्र कुणाल एवं पुत्री संघमित्रा ने अनेक बौद्ध भिक्षुओं के साथ चीन की यात्रा की थी तथा वहां काफी समय तक रह कर बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार करते हुए वहाँ अनेक संघ भी स्थापित किए। 30-40 के दशक में चीन-जापान युद्ध चल रहा था, उस समय भारत ने चीन का नैतिक तथा आर्थिक समर्थन किया। यहाँ तक कि डॉक्टरों का एक सेवा दल भी घायलों का इलाज करने वहाँ गया था, जिसमें एक डॉक्टर कोटनीस और चीनी युवती की प्रेम कहानी आज भी अमर है। कहने का अर्थ यह है कि चीन – भारत के संबंध प्राचीन काल से ही बहुत अच्छे रहे हैं।

चीन की स्वतंत्रता के बाद जब वहां के प्रथम प्रधानमंत्री चाऊ-एन लाई भारत आए, तब उनका जोरदार स्वागत किया गया था। उस समय हर तरफ हिंदी-चीनी भाई-भाई का नारा गूंज उठा था। तत्कालीन प्रधानमंत्री पं जवाहरलाल नेहरू ने उनके साथ मिलकर एक समझौता किया जिसे ‘पंचशील’ सिद्धांत के नाम से जाना जाता है। इस समझौते के अनुसार दोनों देश एक-दूसरे की सीमाओं का अतिक्रमण नहीं करेंगे तथा घरेलू मामले में हस्तक्षेप नहीं करेंगे। कोई समस्या होने पर बातचीत द्वारा ही उसे सुलझाया जायेगा। लेकिन सर्वप्रथम इस समझौते को चीन ने ही तोड़ दिया तथा सबसे पहले तिब्बत प्रदेश हथिया लिया। वहाँ के लोगों को शरणार्थी बना दिया, इसलिए आज भी उनके धर्मगुरु दलाई लामा भारत में मौजूद हैं।

इसके बाद भी चीन ने भारत के उतर-पूर्वी सीमांत प्रदेश को अपनी सीमा में दर्शाना शुरू कर दिया। भारत के विरोध करने पर उसने आंशिक रूप से अपनी गलती स्वीकार की तथा भारत को आश्वासन दिया कि आगे से ऐसा नहीं होगा। लेकिन आगे क्या हुआ, चीन ने पूर्ण रूप से विश्वासघात करते हुए भारत पर 1962 में आक्रमण कर दिया और भारत के एक बड़े भूभाग पर अपना अधिकार जमा लिया जो आज भी कायम है। संसद में भारत के प्रधानमंत्री ने कहा कि – “ठीक है ,आज तुम शक्तिशाली हो, ले लो। जब मेरे पास शक्ति आएगी तब मैं इसको वापस ले लूंगा”। लेकिन वह भारतीय भू-भाग आज भी चीन के कब्जे में है। इस घटना ने नेहरू जी को इतना व्यथित कर दिया कि वो अस्वस्थ रहने लगे तथा अंत में उनका देहावसान हो गया। वास्तव में नेहरू जी इस तरह के हमले के लिए तैयार नहीं थे। स्वतंत्रता मिलने के बाद भारत अपना सारा ध्यान विकास की तरफ लग रहा था। वह अपने पड़ोसियों, से शांति की अपेक्षा रखता था, लेकिन इस घटना के बाद भारत को अपनी रणनीति पर फिर से विचार करना पड़ा। भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने ‘जय जवान जय किसान’ का नारा दिया। भारत ने स्वयं को सैनिक दृष्टि से सक्षम करना शुरू किया। उसी का परिणाम है कि भारत आज एक परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र है और कोई भी देश आज उसकी तरफ आंख भी उठाकर नहीं देख सकता है।

सन् 1962 में युद्ध के कारण भारत और चीन के बीच जो संबंध बिगड़ गए थे वे लगातार बीस वर्षों तक बिगड़े रहे। बाद में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने चीन यात्रा करके उन रिश्तों को पुनः बहाल किया। भारतवासियों को मान सरोवर की यात्रा के लिए वीज़ा उपलब्ध कराया गया। राजदूतों का आदान-प्रदान हुआ, तथा कुछ व्यापार भी शुरू हुआ। धीरे-धीरे चीन के रूख में भी परिवर्तन आया और इस प्रकार चीन, जो कश्मीर मामले में पहले पूरी तरह से पाकिस्तान के साथ हो गया था, अब तटस्थ हो गया। अब इसे केवल भारत और पाकिस्तान के बीच का आपसी मामला बताकर चीन ने पूर्ण रूप से इससे अपना पल्ला झाड़ लिया। इस तरह दोनों देश सीमा विवाद को ठंडे बस्ते में डालकर शांति बनाए रखने पर सहमत हो गए हैं।

संबंध सुधार तो निस्संदेह अच्छी बात है लेकिन इस प्रकार के संबंध आगे कब तक कायम रहेंगे, इसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता है। चूंकि इस समय भारत, चीन और पाकिस्तान तीनों ही परमाणु शक्ति संपन्न हो गए हैं इसलिए कोई भी युद्ध भीषण तबाही मचा सकता है तथा मानवता के लिए गंभीर खतरा उत्पन्न हो सकता है। इसलिए भारत तथा चीन दोनों को आपसी संबंध इसी तरह बनाए रखते हुए, हमेशा बहुत फूँक-फूँक कर कदम उठाने की आवश्यकता है।

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