Essay on Mahavir Prasad Dwivedi in Hindi महावीर प्रसाद द्विवेदी पर निबंध

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Essay on Mahavir Prasad Dwivedi in Hindi

महावीर प्रसाद द्विवेदी पर निबंध

हिन्दी साहित्य को आधुनिक दृष्टिकोण और अर्थ-विन्यास सर्वप्रथम भारतेन्दु युग से ही प्राप्त होने लगता है। किन्तु यह अपनी प्रगाढ़ता को द्विवेदी युग में ही प्राप्त करता है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने हिन्दी साहित्य को जिन नवीन-काव्य विषयों से संबंद्ध किया था, उन्ही को और ज्यादा विस्तार और स्पष्टता द्विवेदी युगीन कवियों ने प्रदान की। करीब 1907 के आस-पास से सन् 1918-20 के आस-पास तक की कालाअवधि हिन्दी साहित्य में द्विवेदी युग के नाम से जानी जाती है। इस युग के सर्वप्रमुख रचनाकार हैं आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी। द्विवेदी जी मूलत: एक साहित्य शिक्षक ही थे। उन्होंने रचनात्मक लेखन ज्यादा नहीं किया। किन्तु उन्होंने इस समग्र काव्य-आन्दोलन को वैचारिक एवं भावनात्मक आधार देने के साथ ही भाषा के प्रति ठोस दृष्टिकोण स्थापित किया। द्विवेदी का वास्तविक महत्व भी वस्तुत: यही है। उन्होंने भाषा का परिष्कार जिस गम्भीरता और सजीवता के साथ किया वह सदा-सदा के लिए इतिहास को न केवल स्मरण रहेगा अपितु सराहा भी जाएगा। छायावाद के प्रमुख कवियों में मैथिलीशरण गुप्त, रामनरेश त्रिपाठी, सियारामशरण गुप्त, रामदेवी प्रसाद चूर्ण और कविवर शंकर आदि प्रमुख हैं। इस काव्य-धारा में राष्ट्रीयता, समाज-सेवा, देशभक्ति, आर्थिक शोषण का विरोध, मानवता, नीति और आदर्श, प्रकृति-चित्रण, छन्द-वैविध्य और भाषा चेतना आदि की प्रवृत्तियां प्रमुखत: गतिशील रही हैं।

विदेशी संस्कृति और जीवन-पद्धति का अन्धानुकरण करने वाले युवकों को अपने सटीक व्यंग्य का निशाना बनाते हुए कवि कहता है:
“छड़ी धार छैला छबीले बनो, रंगीले रसीले पहले बनो।
न चुको भले भोग भोगी बनी, किसी बेड़नी के वियोगी बनो।”

सांस्कृतिक स्खलन द्विवेदी युग के कवियों की एक महत्वपूर्ण चिन्ता थी जिसे उन्होंने काव्य के माध्यम से बार-बार अभिव्यक्त भी किया है।

यह समय इतिहास में प्रबल राष्ट्रीय भावना का युग था। हर कवि, रचनाकार और नेता देश के जनमानस में राष्ट्रीयता की पावन चेतना को प्रज्ज्वलित करने की अथक चेष्टा कर रहे थे। वह नित् अपने देश के लिए अपने जीवन का सर्वस्व त्याग देने का आह्वान कर रहा था। कविवर शंकर ने लिखा है:

देशभक्त वीरों मरने से नेक नहीं डरना होगा।
प्राणों का बलिदान देश की वेदी पर करना होगा।

इसी प्रकार की भावनाएं गुप्त जी ने भी व्यक्त की हैं। इस संदर्भ में उनकी निम्नोक्त पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं:

धरती हिलकर नींद भगा दे
बज्रनाद से व्योम जगा दे
दैव और कुछ आग लगा दे

इस काव्य-धारा में अपने प्राचीन गौरव के बीत जाने की पीड़ा की अभिव्यक्ति बड़ी ही मार्मिकता के साथ की गई है। गुप्त जी ने तो भारत भारती’ में भारतवर्ष का समूचा इतिहास ही लिख डाला है। गोपालशरण सिंह नेपाली की निम्नोक्त पंक्तियां दृष्टव्य हैं:

वह धीरता कहाँ हैं गम्भीरता कहाँ हैं?
वह वीरता हमारी है वह कहाँ बड़ाई।
क्या हो गयीं कलाएँ कौशल सभी हमारे?
किसने शताब्दियों की भी छीन ली सब कमाई।

इसी प्रकार इस काव्य धारा में देश, दशा एवं दिशा की भी चर्चाएं व्यापक रूप से की गयी हैं। राम देवी प्रसाद पूर्ण की निम्नोक्त पंक्तियां भी दृष्टव्य हैं –

भारतखण्ड का हाल जरा देखो है कैसा
आलस का जंजाल जरा देखो है कैसा।।
जरा फूट को दशा खोलकर आँखे देखो।
खुदगर्जी का नशा आँख खोलकर आँखें देखो।

प्रकृति चित्रण का एक नया रूप इस काव्य धारा में हमें देखने को प्राप्त होता है। प्रकृतिचित्रण का आलंबन रूप इस काव्य धारा में प्रधान रहा है। जैसे –
दिवस का अवसान समीप था।
गगन था कुछ लोहित हो चला।
वह शिखा पर थी अब राजती।
कमलिनी कुल वल्लभ की प्रभा।।

इस प्रकार पूरे हिन्दी साहित्य में द्विवेदी युग एक अनिवार्य और महत्वपूर्ण भूमिका रखता है। जिस प्रकार यह काव्य-धारा भारतेन्दु युग को अधिक विस्तार और स्पष्टता प्रदान करता है। उसी प्रकार परवर्ती काव्य को भी प्रभावित एवं प्रेरित करती है।

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