हानि लाभ जीवन मरण यश अपयश विधि हाथ Hani Labh Jeevan Maran Yash Apyash Vidhi Hath

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Hani Labh Jeevan Maran Yash Apyash Vidhi Hath

Hani Labh Jeevan Maran Yash Apyash Vidhi Hath 900 Words

अक्सर लोगों को कहते सुना जाता है कि अपना-मान-सम्मान, अपना यश-अपयश, अपना सुख-दुख और हानि-लाभ आदि सभी कुछ आदमी के अपने हाथों में ही रहा करता है। एक दृष्टि से इस मान्यता को सत्य एवं उचित भी कहा जा सकता है। वह इस तरह कि आदमी अच्छे-बुरे जैसे भी कर्म किया करता है, उसी तरह से उसे हानि-लाभ तो उठाने ही पड़ते हैं, उन्हें जान-सुन कर दुनिया का व्यवहार भी उसके प्रति उसके किए कर्मों जैसा ही हो जाया करता है अर्थात् अच्छे कर्म करने वाला सुयश और मान-सम्मान का भागी बना करता है; जबकि दुष्कर्म करने वाला व्यक्ति अपयश एवं अपमान का अधिकारी बन जाया करता है। लेकिन शीर्षक सुशक्ति में कविवर तुलसीदास ने इस प्रचलित धारणा के विपरीत मत प्रकट करते हए कहा है कि:
“हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश विधि-हाथ।”

अर्थात् जन्म से लेकर मृत्यु तक आदमी हानि-लाभ, यश-अपयश जो कुछ भी अर्जित कर पाता है, उस में उसका अपना वश या हाथ कतई कुछ नहीं रहा करता। विधाता की जब जैसी इच्छा हुआ करती है, तब उसे उसी प्रकार की लाभ-हानि तो उठानी ही पड़ती है, मान-अपमान भी सहना पड़ता है। जीवन और मृत्यु तो एकदम असन्दिग्ध रूप से आदमी के अपने वश में न रह कर विधाता के हाथ में रहते ही हैं।

जब हम गम्भीरता से प्रचलित धारणा और कवि का मान्यता पर विचार करते हैं, लोक के अनुभवों के आधार पर सत्य को तोल कर या परीक्षा करके देखते हैं, तो कवि की मान्यता प्रायः सत्य एवं अधिक युक्तिसंगत प्रतीत होती है। एक व्यक्ति रात-दिन यह सोच कर परिश्रम करता रहता है कि वह उस का सुफल पाकर जीवन में सुख भोग और सफलता पा सकेगा पर होता इसके विपरीत है। विधाता उसके किए-कराए पर पानी फेर कर सारी कल्पनाएँ भूमिसात कर देता है। एक उदाहरण से इस बात की वास्तविकता सहज ही समझी जा सकती है। एक किसान पक्के इरादे से रात-दिन मेहनत मशक्कत करके फसल उगाता है। लहलहाती फसलों के रूप में अपने कर्म और परिश्रम का सुफल निहारकर मन-ही-मन फूला नहीं समाता। लेकिन अचानक रात में अतिवृष्टि होकर या बाढ़ आकर उस सब को तहस-नहस करके रख देती है। अब इसे आप क्या कहना चाहेंगे? ‘हानि-लाभ सभी कुछ वास्तव में विधाता के ही हाथ में है’ इस के सिवा और कह भी क्या सकते हैं।

इसी तरह आदमी अच्छे-बुरे तरह-तरह के कर्म करता, कई प्रकार के पापड़ बेल कर धन-सम्पत्ति अर्जित एवं संचित करता रहता है। यह सोच-सोच कर मन-ही-मन बड़ा प्रसन्न भी रहा करता है कि अब उसे अपने भविष्य के लिए किसी भी तरह की चिन्ता नहीं करनी पडेगी। तभी अचानक कोई महामारी, कोई दुर्घटना होकर उसके प्राणों को हर लेती है और उसके भावी सुखों की कल्पना का आधार सारा धन-सम्पत्ति उसे सुख तो क्या देना उस के प्राणों की रक्षा तक नहीं कर पाता। इसमें भी तो विधाता की इच्छा ही मानी जाती है। यह कह कर ही सन्तोष करना पड़ता है पीछे बच रहे लोगों को कि ‘विधाता को ऐसा ही मंजूर था। होनी को या उसकी इच्छा को कौन टाल सकता है?’ सो स्पष्ट है कि विधाता की इच्छा के सामने आदमी एकदम लाचार एवं विवश है। जो कुछ भी हुआ, जो कुछ हो या घट रहा है, भविष्य में भी जो कुछ होना या घटना है; वह सब उस की इच्छा का ही परिणाम था, है और होगा।

कई बार मनुष्य कोई अच्छा कर्म इसलिए करता है कि उसका परिणाम मान-यश बढ़ाने वाला होगा। सो वह उस कर्म को करता जाता है। पर उसके विरोधी पैदा होकर उस के सारे परिश्रम को व्यर्थ कर देते हैं। उसे मान की जगह अपमान और यश की जगह अपयश भोगने को विवश होना पड़ता है। जैसे-एक आदमी अपनी कार या इसी तरह के वाहन पर कहीं जा रहा है। रास्ते के सूने में एक महिला सहसा सामने आकर हाथ दे उसे रुकने का संकेत करती है। सद्भावनावश वह रुक जाता है। उसकी बातों से उसे विवश एवं असहाय मान उसकी सहायता करने के लिए तत्पर हो जाता है। उसे अपने वाहन पर सवार कर लेता है। कुछ आगे बढ़ या भीड़-भाड़ वाले स्थान पर पहुँच कर वह महिला कह उठती है कि जो कुछ भी पास है, वह निकाल कर मुझे दे दो। घड़ी और चेन भी उतार कर मेरे हवाले कर दो, नहीं तो अभी चिल्ला कर भीड़ इकट्ठी कर दूँगी। अब बताइये, इसे क्या कहेंगे? न तो उस से उगलते बनेगा न निगलते। कहाँ तो चले थे भला करने; पर गले पड़ी बुराई।

इस प्रकार यह मान्यता स्वीकार कर ही लेनी चाहिए कि आदमी के अपने हाथ में कुछ नहीं है। जो कुछ है, वह विधि के हाथ में ही है। वही संसारकर्ता, भर्ती और हरता सभी कुछ है। उसी की इच्छा-अनिच्छा और लीला का परिणाम है यह दृश्य जगत। इस का कण-कण उसी से संचालित हुआ करता है। उसी की इच्छा से हवा चलती है, बादल बरसते हैं। चाँद सूर्य-तारे क्रम से आते-जाते हैं। वहीं यश-अपयश, मान-सम्मान आदि हर बात कर कर्त्ता और दाता है। इसी ओर संकेत करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में अर्जुन से कहा था-अपना भला-बुरा सब-कुछ मेरे अर्पित कर दो। तुम केवल कर्त्तव्य कर्म मेरा ही आदेश मान कर करते जाओ। सो कवि का भी यहाँ यही आशय है कि-हानि-लाभ, यश-अपयश आदि सभी को भगवान् के हाथ में मान कर अपने कर्त्तव्यों का पालन करते जाओ-बस!

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