जहाँ सुमति तहाँ संपत्ति नाना Jaha Sumati Taha Sampati Nana

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Jaha Sumati Taha Sampati Nana

जहाँ सुमति तहाँ संपत्ति नाना Jaha Sumati Taha Sampati Nana

Jaha Sumati Taha Sampati Nana 800 Words

यह सूक्ति मानव-विवेक को जागृत कर उसे उचित गति-दिशा प्रदान करने के लिए कल्पित की गई है। गोस्वामी तुलसीदास द्वारा परिकल्पित एवं विरचित ‘रामचरितमानस’ में दी गई इस सूक्ति का सम्पूर्ण स्वरूप इस प्रकार है:
“जहाँ सुमति तहाँ सम्पत्ति नाना।
जहाँ कुमति तहाँ विपत्ति निधाना।।”

अर्थात् जहाँ या जिस व्यक्ति के हृदय एवं समस्त क्रिया-व्यापारों में सुमति या सुबुद्धि का निवास अथवा आग्रह रहा करता है, वहीं पर सभी तरह की सुख-सम्पत्तियाँ सुलभ रहा करती हैं। इसके विपरीत जहाँ या जिस व्यक्ति के हृदय एवं क्रिया-व्यापारों में कुमति या कुबुद्धि का निवास अथवा समावेश रहा करता है, वहाँ अनेक प्रकार के दुःख और विपत्तियाँ डेरा डाले रहा करती हैं । ध्वन्यात्मक अर्थ एवं भाव है कि व्यक्ति को सुख-समृद्धि पाने के लिए, प्रगति एवं विकास के लिए हमेशा सुबुद्धि से काम लेकर सुविचारित ढंग से अपना प्रत्येक कार्य निष्पादित करना चाहिए। सुमति का मार्ग ही मानव के कल्याण का मार्ग है।

इस तथ्य को उजागर करने एवं सन्देश को प्रसारित करने के लिए तुलनात्मक दृष्टि अपना कर कवि ने परस्पर विलोम रहने वाले दो शब्दों का बारी-बारी से प्रयोग किया है। एक सुमति-कुमति, दूसरा सम्पत्ति-विपत्ति। ‘सुमति’ का सम्बन्ध ‘सम्पत्ति’ से बताया है; जबकि ‘कुमति’ का सम्बन्ध ‘विपत्ति’ से बताया गया है। मनुष्य क्योंकि सामाजिक, सर्वश्रेष्ठ एवं विचारवान् प्राणी है, इस कारण कवि ने उस से सुमति के द्वारा सम्पत्ति की ओर जाने का आग्रह किया है। यह आग्रह ही इस ध्वन्यर्थ को व्यंजित करने वाला है कि व्यक्ति को कुमति का मार्ग त्याग देना चाहिए; क्योंकि वह तरह-तरह की विपत्तियों की ओर ले जाने वाला होता है।

सुमति का सम्बन्ध सुविचार से है। सुविचार का अर्थ और प्रयोजन होता है सोच-विचार कर, प्रत्येक बात का कार्य-कारण सम्बन्ध जान कर, अच्छे-बुरे पहलू और परिणाम सोच कर कार्य करना; ताकि कुफल से बचा और सुफल प्राप्त किया जा सके। जीवन का लक्ष्य या प्रगति-विकास का शिखर तभी पाया जा सकता है कि जब व्यक्ति अपने कार्यों-प्रयत्नों के द्वारा निरन्तर सुफल-प्राप्ति की ओर अग्रसर होता रहे। जैसे पहाड़ पर चढ़ रहे व्यक्ति को हर कदम साध कर उचित स्थान पर ही रखना होता है, ताकि वह भूस्खलन का शिकार होकर नीचे किसी गहरी खाई में न जा गिरे; उसी प्रकार जीवन में प्रत्येक कदम फूंक-फूंक कर उठाना और रखना होता है, सम्हल-सम्हल कर आगे बढ़ना होता है, ताकि वह कदम असफलता और विपदाओं की खन्दक में न लुढ़क जाए। ऐसा करना ही वस्तुतः सुमति या बुद्धिमानी हैं। हम अपने जीवन-समाज के आस-पास हमेशा देखा करते हैं कि ज़रा से अविचार या भूल का लोगों को कितना गहरा कष्ट झेलना पड़ता है। ज़रा-सा अविचार और भूल जीवन भर के सभी किए-कराये पर पानी फेर दिया करते या सभी उपलब्धियों को मिट्टी में मिला दिया करती हैं। अतः मनुष्य को हमेशा ही बड़ा सावधान रह कर कुमति से उपजे अविचार और भूलों से बचे रहना चाहिए।

सुमति से काम लेकर सुविचारित ढंग से चलने का मार्ग कठिन हो सकता है, प्रायः हुआ भी करता है। लेकिन जब मनुष्य उस कठिन मार्ग पर साहस और सविचार से चल कर उसे पार कर लिया करता है, तब जिस सुख एवं आनन्द की अनुभूति हआ करती है। स्यात शब्दों द्वारा उस पर प्रकाश नहीं डाला जा सकता। उस का तो मात्र अनुभव ही किया जा सकता हैं। इसी तरह कुमति से प्रेरित हो और अविचार या कविचार का दामन थाम कर चलने से अन्ततोगत्वा जिस प्रकार की आत्मपीड़ा और आत्मसंन्ताप झेलना पडा करता है, उसे भी शब्दों द्वारा आकार दे पाना संभव नहीं हुआ करता। वह तो मात्र झेलने वाला ही हर पल पश्चाताप की आग में झुलसते रह कर अनुभव कर पाता है। इतना ही नहीं अविचारित कार्यों के परिणाम अपने साथ-साथ घर-परिवार एवं आस-पड़ोस को भी ध्वस्त कर दिया करते है। रावण द्वारा अविचारित ढंग से किया गया सीता-हरण उसके अपने-समेत समूचे वंश और सहायको-सहयात्रियों के भी नाश का कारण बना, यह सभी जानते हैं। इसलिए अविचारित एव प्रेरित कार्यों से हमेशा दूर ही रहना चाहिए।

अपने आरम्भ से लेकर आज तक मानव-समाज ने जो प्रगति एवं विकास किया है, वह उसके सुविचारित कार्यों का ही परिणाम है। सविचारित व्यय ही व्यक्ति का अपव्यय से बचाकर असमय में आ पड़ने वाले खर्चों के समय लाभप्रद सिद्ध हुआ करता है। सुमति से काम ले, समय को पहचान-परख कर किया गया कार्य अच्छा फल तो दिया ही करता है, समय का सदुपयोग करना भी माना जाता है। हर जीवन में एक-न-एक-क्षण निर्णय एवं मार्ग-निर्धारण का आया करता है। सुमति से उसे पहचान लेने वाला तो हर अभियान में विजय पाते हुए शिखर तक पहुँच जाया करता है, जबकि कुमति से उस क्षण को गंवा देने के कारण आदमी आजीवन पश्चाताप की आग में तो जलता ही रहता है, विपत्तियों से भी छुटकारा नहीं प्राप्त कर पाता। यही स्पष्ट करना सूक्तिकार का प्रयोजन है।

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