Essay on Nasha Mukti in Hindi नशा मुक्ति पर निबंध

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Essay on Nasha Mukti in Hindi

नशा अर्थात् मादक पदार्थों के सेवन से प्रत्येक वर्ग का व्यक्ति ग्रसित है। यहां तक कि अब महिलाओं में भी यह प्रवृत्ति घर करती जा रही है। वैसे तो इसका सेवन विश्व भर में हो रहा है; परन्तु भारत में यह दर्द बनकर व्याप्त है। प्रतिदिन हमें इसकी कुरीतियों और दुष्परिणामों की जानकारी प्राप्त होती है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि हमारी आधुनिक सभ्यता की यह एक पहचान हो गई है। आज का युवक इसका सेवन कर स्वयं को बड़ा आदमी समझता है।

माद्रक पदार्थों का सेवन आधुनिक युग की देन है ऐसा नहीं है। इसका इतिहास इतना ही पुराना है जितना कि मानव इतिहास। हमारे प्राचीन ग्रंथों में भी ‘सोम’ व ‘सुरा’ जैसे शब्दों का उल्लेख मिलता है। अतः शताब्दियों से यह प्रथा चलती आ रही है। आज ही की तरह हमारे पूर्वज भी मदिरापान और अन्य मादक द्रव्यों का खुले रूप से सेवन करते थे। मादक पदार्थों को हम ‘ड्रग्ज़’ के रूप में जानते हैं। अफीम, स्मैक, गांजा, चरस, हेरोइन, मोरफीन, शराब आदि पदार्थ ‘ड्रग्ज़’ के ही अन्र्तगत आते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि समाज में ‘ड्रग्ज़’ कई रूपों और नामों से विद्यमान है।

नशा अथवा मदिरा सेवन स्वास्थ्य तथा समाज सभी के लिए सभी प्रकार से हानिकारक है फिर भी इसका सेवन करने वालों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। यदि हम इसके कारणों पर नजर डालें तो हम पाते हैं कि इसके एक नहीं कई कारण हैं। आज प्रतिस्पर्धा का युग है। मनुष्य लगातार अवसादों और दु:खों में घिरा हुआ है।

मदिरा का सेवन मनुष्य की समस्या का निदान तो नहीं करता परन्तु मनुष्य इसके सेवन से कुछ क्षणों के लिए स्वयं को पृथक करने की चेष्टा करता है। वह इस भ्रामक स्थिति में रहता है कि इसका सेवन उसके मन को शक्ति व स्थिरता प्रदान करेगा। युवा वर्ग में अनेक युवक-युवितयां शराब व अन्य मादक द्रव्यों का सेवन इसलिए करते हैं ताकि वे स्वयं को ‘आधुनिक’ बना सकें। उनकी धारणा है कि यदि वे इसका सेवन नहीं करेंगे तो वे ‘पिछड़े’ कहलाएंगे। कुछ लोग अपने राजनैतिक व आर्थिक स्वार्थ के लिए इसे प्रोत्साहित करते हैं। ऐसे लोगों का पूरा प्रयास रहता है कि इसकी जड़ें और भी अधिक गहरी होती चली जाएं ताकि उनका ‘धंधा’ फलता-फूलता रहे।

नशाबंदी के प्रयास वैसे तो वर्षों से चल रहे हैं परन्तु इनके वांछित परिणाम सकारात्मक नहीं हैं। आज भी यह उसी प्रकार व्याप्त हैं। मदिरा सेवन का हमारे राष्ट्रपिता ‘गांधी जी’ ने जमकर विरोध किया था। इस दिशा में उनके प्रयास सराहनीय हैं। प्रशासनिक स्तर पर भी समय-समय पर नियम-कानून बनाए गए हैं। देश में कई राज्यों में अनेकों बार इसे रोकने के लिए कठोर कदम भी उठाए गए हैं। रेडियो, दूरदर्शन तथा समाचार-पत्रों के माध्यम से इसकी हानियों का निरंतर प्रचार किया जा रहा है। साथ ही साथ नशाबंदी के समर्थन में समय-समय पर काव्यगोष्ठियों, नाटकों, सभा–सम्मेलन व अन्य जागृति शिविरों का भी आयोजन किया जा रहा है।

नशा-मदिरा सेवन को रोकने के लिए प्रशासनिक स्तर पर भी प्रयास पर्याप्त नहीं हैं। इसके विरोध में जन-जन में जागरूकता आवश्यक है। सम्पूर्ण जनमानस को इसके सेवन के विरुद्ध तैयार किए बिना नशाबंदी का लक्ष्य बहुत दूर ही रहेगा। वास्तव में विभिन्न नशीले पदार्थों की बिक्री से सरकारी खजाने में अनायास ही भारी मुद्रा इकट्ठी हो जाती है जिसके कारण राष्ट्रीय स्तर पर नशाबंदी लागू करने का साहस कोई भी केन्द्रीय सरकार नहीं जुटा पाई है। दूसरी ओर जब कोई राज्य सरकार यह कदम उठाती है तो वहां अन्य पड़ोसी राज्यों से नशीले पदार्थों की तस्करी होने लगती है। अवैध रूप से तैयार मदिरा का सेवन कई बार जानलेवा सिद्ध हो चुका है।

भारत जैसे विकासशील देश में नशाखोरी राष्ट्र और समाज को खोखला करती है। आश्चर्य तो इस बात का है कि विशेष रूप से मजदूर और रिक्शे, तांगे, खोमचे वाले लोग बोतलों के नशे में अपने आप को डुबो देते हैं जिनकी आय भी सीमित होती है। घरों में परिवार और बच्चों के सामने पीने से भावी संतान भी उत्साहित होती है। चोरी-छिपे पीने वाले लोगों की संख्या भी कम नहीं होती है। नशे के कुछ क्षणों में डूबने से कोई दु:ख भुलाए नहीं जा सकते हैं और न उनसे छुटकारा हो सकता है। अत: राष्ट्र और समाज का हित इसी में है कि सामाजिक और राष्ट्रीय स्तर पर आन्दोलन चला कर इससे मुक्ति प्राप्त कर देश और परिवार की आर्थिक दशा सुधारी जाए।

देश की उन्नति के लिए, नैतिक, चारित्रिक तथा राष्ट्रीय भावना के विकास के लिए नशाबन्दी आवश्यक है। यद्यपि सरकार के लिए यह एक आय प्राप्ति का साधन है। लेकिन इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि इस धन प्राप्ति के साधन को बनाए रखा जाए तथा राष्ट्रीय चरित्र की होली जलाई जाए। आज की स्थिति यह है कि नशे के प्रति अधिकतर युवा पीढी आकर्षित हो रही है। इससे युवा पीढ़ी अयोग्य तो होती ही है, उसमें अनुशासनहीनता भी पनपती है।

Essay on Nasha Mukti in Hindi

नशाबन्दी कानून की प्रभावशीलता

नशे की चपेट में आने वाला मनुष्य अपने जीवन में किसी प्रकार की भी खुशी अथवा आनन्द की प्राप्ति नहीं कर पाता है। उसे नशे में धुत रहना ही मानों जीवन का सबसे बड़ा आनन्द और खुशी प्रतीत होने लगती है। न तो किसी अपने की जिम्मेदारी का उसे होश रहता है और न अपने प्रति जिम्मेदार और कर्तव्य परायण होने की ही चेतना उसमें शेष बची रह जाती है। वस्तुत: वह एक ऐसे तंत्र जाल में स्वयं को फंसा लेता है, जिससे एक ओर तो बाहर निकल पाना प्राय: असंभव सा होता है, और दूसरी ओर अगर कभी कोई इसकी लत को छोड़ने की चेष्टा भी करता है तो वह अधिकांशत: इसमें सफल नहीं होता। एकाधिक मनुष्य ऐसे होते हैं जो अपने मन में पूरी तरह से यह ठान लेते हैं कि अब उन्हें इस विकृति में आगे पड़ना ही नहीं है।

नशे की लत यूं ही नहीं पड़ जाती। कुछ एक कारण इसमें अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। प्राय: देखा जाता है कि जो लोग हमें इस नशे की लत के शिकार आज दिखाई पड़ते हैं, कभी वे इसे छूते तक न हीं थे। और स्वयं इसके बारे में वही धारणा रखते थे जो कोई भी समझदार आदमी अपने मन में इस नशे के प्रति रखता है। किन्तु या तो अपने किन्हीं ऐसे दोस्तों और मित्रों की कुसंगति में पड़कर, जो नशे का सेवन करते थे, वे भी शनैः शनैः इस विकृति को अपने सिर पर बिठाते चले गए, या फिर आज के प्रतिस्पर्धात्मक युग में किसी प्रकार की असफलता ने उन्हें कुछ इस प्रकार से हताश कर दिया कि उन्हें इस हताशा में नशे को छोड़कर और कोई सच्चा साथी नजर ही नहीं आया।

किन्तु ऐसा नहीं कहा जा सकता कि नशाखोरी की आदतें इन्हीं अथवा इसी प्रकार के हताश लोगों में ही मिलती है। यह कहना अर्ध सत्य मात्र होगा कि हमारा समाज सामाजिक-आर्थिक वैमनस्यों से लबालब भरा हुआ है। कुछ ऐसे लोग हैं जिनके पास दो वक्त की रोटी का भी इंतजाम नहीं है। कुछ ऐसे भी हैं जिनके पास इतना पैसा है कि दिन-रात उड़ाते रहने पर भी किसी प्रकार का संकोच उन्हें कभी नहीं घेरता। हमारे धर्म-चिन्तकों और सामाजिक नेताओं ने प्राय: धन संचय से पैदा होने वाली नाना भांति की विसंगतियों और प्रवृत्तियों का संकेत यथोचित रूप से किया है। इसी प्रकार की एक विसंगति उन्होंने नशे की लत, अथवा नशाखोरी को भी रेखांकित करते हुए किया है। महात्मा गाँधी ने एक स्थान पर लिखा है: “जो राष्ट्र शराब की आदत का शिकार है, कहना चाहिए कि उसके सामने विनाश मुँह बाये खड़ा है। इतिहास में इस बात के कितने ही प्रमाण है कि इस बुराई के कारण कई साम्राज्य मिट्टी में मिल गये हैं। प्राचीन भारतीय इतिहास में हम जानते हैं कि वह पराक्रमी जाति, जिसमें श्रीकृष्ण ने जन्म लिया था, इसी बुराई के कारण नष्ट हो गयी। रोम साम्राज्य के पतन का एक सहायक कारण निस्संदेह यह बुराई ही थी। मैं भारत का गरीब होना पसन्द करूंगा, लेकिन मैं यह बरदाश्त नहीं कर सकता कि हमारे हजारों लोग शराबी हों। अगर भारत में शराबबन्दी जारी करने के लिए लोगों को शिक्षा देना बन्द करना पड़े तो कोई परवाह नहीं, मैं यह कीमत चुकाकर भी शराबखोरी को बन्द करूंगा।”

इस बात से हमें यह स्पष्टत: दिखलायी पड़ने लगता है कि नशा केवल व्यक्तिगत रूप से ही आदमी का नाश नहीं करता अपितु उसकी सामाजिक एवं सांस्कृतिक परम्परा और व्यवस्था को भी नष्ट और बरबाद करता है। गांधीजी ने ठीक ही कहा है कि इसी लत के चलते अनेकानेक सभ्यताएं नष्ट प्राय हो गईं।

आजादी के बाद भारत ने इस नशाखोरी की प्रवृत्ति को ख़त्म करने को महत्वाकांक्षी चेष्टा की। शराब के उत्पादन पर बड़े पैमाने पर कानूनी शिकंजे भी कसे गए। किन्तु इस प्रक्रिया में हमसे एक बड़ी भूल हो गयी और वह यह कि हमने नशाखोरी अथवा नशीले पदार्थों पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाने के स्थान पर ‘लाइसेंस’ की व्यवस्था कर दी। अर्थात् गैर कानूनी काम को अप्रत्यक्ष रूप से एक प्रकार की कानूनी मान्यता ही प्रदान कर दी।

हालांकि भारत अन्य देशों की तुलना में इस संदर्भ में अधिक सजग देश कहा जा सकता हैं। गैर कानूनी रूप से नशीले पदार्थों को देश की सीमा में आने से रोकने के लिए ‘नारकोटिक्स विभाग’ की स्थापना की गयी। यह विभाग आज कल अत्यंत तत्परता से अपना काम कर रहा है। आये दिन हमें इस प्रकार की सूचनाएं प्राप्त होती रहती हैं, जिनमें इस विभाग द्वारा पकड़े गए नशाखोर और विक्रेताओं की खबरें हुआ करती हैं।

गाँधी जी ने इसे प्रतिबन्धित करने की आशा की थी, किन्तु इसमें उन्होंने किसी प्रकार की जोर-जबरदस्ती से इंकार किया था। वस्तुत: यह विकृति जागरूकता और कानूनी दवाव दोनों के कदम से खत्म की जा सकती है। सरकार को इन्हीं दोनों दृष्टियों से इस पर विचार करना चाहिए।

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