परहित सरिस धर्म नहिं भाई Parhit Saris Dharam Nahi Bhai

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Parhit Saris Dharam Nahi Bhai

Parhit Saris Dharam Nahi Bhai

Parhit Saris Dharam Nahi Bhai 800 Words

‘हरि अनन्त हरि-कथा अनन्ता’ पद के अनुरूप धर्म के भी अनन्त रूप एवं रंग हैं। धर्म का अर्थ किसी विशेष तरह की पूजा-पाठ-पद्धति अपना लेना, मन्दिर-मस्जिद में जाना, घण्टे-घड़ियाल खड़का कर पूजा-आरती करना या कानो पर हाथ रख चिल्ला-चिल्ला कर अजान देना, किसी ग्रन्थ-विशेष का पाठ करना या चेहरे अथवा शरीर के अन्य भागों पर कुछ विशेष प्रकार के चिन्ह, मुखौटे चिपकाए फिरना नहीं है। धर्म का वास्तविक अर्थ हुआ करता है उदात मानवीय सद्गुणों का विकास कर उन्हें अपने में धारण करने की क्षमता अर्जित करना। तभी तो ‘धर्म’ की जो परिभाषागत व्युत्पत्ति की जाती है कि ‘धारयते इति धर्मः’ अर्थात् जिसस धारण कर पाने की शक्ति हो वही धर्म है, यह सफल-सार्थक हो सकती है।

प्रश्न उठता है कि किस चीज को धारण करने की शक्ति? उत्तर है सभी तरह के उदात एव उदार सद्गुणों को धारण कर पाने की शक्ति। इस शक्ति से सम्पन्न रहने के कारण ही मनुष्य अपने भीतर भिन्न प्रकार की धार्मिक प्रवत्तियों का विकास कर पाता है। उन वृत्तिया में एक महानतम वृत्त है-पर-हित-साधन करने की अर्थात परोपकार करने की। कविवर तुलसीदास ने इसी प्रवृत्ति को महत्त्व देते हुए, महत्त्वपूर्ण मानते हुए अपनी महानतम रचना ‘रामचरितमानस’ में एक विशिष्ट ज्ञान सम्पन्न पात्र के मुख से यह कहलवाया है कि-‘पर-हित सरिस धर्म नाहि भाई।’ अर्थात् हे भाई, परोपकार से बढ़ कर मनुष्य के लिए अन्य कोई धर्म नहीं। संस्कृत में भी इस प्रकार की एक सूक्ति मिलती है। उसके अनुसार-‘परोपकाराय सत्तां विभूतयः’ अर्थात् सज्जनों द्वारा अर्जित सभी प्रकार की सम्पत्तियाँ अपने सुख-भोग के लिए न होकर परोपकार या पर-हित-साधन के लिए ही हुआ करती है।

सत्पुरुष, सज्जन तो ऐसा मानते ही हैं। प्रकृति भी अपने समस्त व्यवहारों व्यापारों से हमें यही शिक्षा देती है। प्रकृति-पुत्र फलदार वृक्ष अपने फल-फूल स्वयं तो कभी चखते तक नहीं, सभी प्राणी जगत् को ही अर्पित कर दिया करते हैं। यहाँ तक कि अपने तन का फर्नीचर बनने दे, ईन्धन या कोयला बना कर उसे भी मानव-हित में अर्पित कर दिया करते हैं। नदियाँ ऊँचे पर्वतों की बर्फानी एवं पानीदार कोख से जन्म ले, कल छल करतीं, पत्थरों आदि से खेल रचाती मैदानों में आती है; ताकि मनुष्य तथा अन्य प्राणी जगत उस पानी से प्यास बुझा तरो-ताज़ा तो हो ही सके, खेती-बाड़ी, बाग-बगीचे आदि सींच कर अपने भरण-पोषण की व्यवस्था भी कर सकें। जीवन में तरलता, सुन्दरता और स्निग्धता का समावेश हो सके। हवा अपना कोई स्वार्थ साधने के लिए नहीं बहा करती; बल्कि संसार में प्राण-तत्त्वों का सुखद संचार हो सके, इसलिए बहा करती है। वादल अपना कुछ बनाने-संवारने के लिए नहीं बना करता, बल्कि धरती की प्यास बुझा कर उसे हरियाली का वरदान देने के लिए बना और बरसा करते हैं। चाँद, सूर्य, तारे आदि प्रकृति के जो अन्य अनेकाविध रूप हैं, वे सभी स्पष्टतः पर-हित-धर्म का निर्वाह करते हुए ही दिखाई देते हैं। इस तरह स्पष्ट है कि सच्चा धर्म वही हुआ करता है, जो सारी मानवता का, बल्कि समूचे प्राणी जगत् का हित-साधन कर सके।

यों तो संसार में स्वार्थ-साधन का हमेशा ही बोल-बाला रहा है, लेकिन पहले थोड़ा-बहुत परोपकार के रूप में मानव-धर्म-निर्वाह का भाव भी अवश्य रहा करता था। आज भी लोगों को कहते सुना जा सकता है कि अभी कुछ धर्म बाकी है, तभी तो धरती टिकी हुई है और धर्म भी बचा हआ है। संस्कृत में भी कहावत है कि ‘धर्मो रक्षति रक्षितः’ अर्थात जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है। सो परोपकार के रूप में यदि हम एक महान धर्म का पालन कर पाते हैं, तो एक प्रकार से अपनी रक्षा भी करने का उपाय कर लेते हैं। वैसे भी भूखे को अन्न खिला, प्यासे को पानी पिला कर जिस सुख-सन्तोष की एक स्वतः स्फूर्त अनुभूति व्यक्ति को हुआ करती है, वह कोई बस महत्त्व रखने वाली उपलब्धि नहीं है। इसलिए जहाँ तक भी व्यक्ति से सम्भव हो सके, पर-हित-साधन के लिए हमेशा तत्पर रहना चाहिए।

सभी जानते हैं कि रात-दिन भाग-दौड़ कर के, सच-झूठ बोल कर हम जो कुछ भी अर्जित किया करते हैं, उसमें से कुछ भी साथ नहीं ले जाना है। सभी कुछ यहीं-का-यहीं धरा रहेगा। तो क्या उचित यह न होगा कि अपने नाखूनों की नेक कमाई में से कुछ हम ऐसे लोगों के लिए अर्पित कर दें कि जो असमर्थ हैं, जरूरतमंद हैं या फिर किसी कारणवश अभावभरा जीवन व्यतीत करने को बाध्य हैं। मानव-जीवन की सार्थकता का वास्तविक मानदण्ड यही है कि वह पर-हित-साधन में इस सीमा तक आगे बढे कि दूसरों को भी अपने समान, अपने जैसा यानि साधन-सम्पन्न बना दे। शास्त्रीय शब्दों में मानवता का ऋण से मुक्ति पाने का प्रयास परोपकार है और परोपकार सब से बड़ा धर्म । ऐसा धर्म कि जिस की साधना के लिए कहीं जाने आने की कतई कोई जरूरत नहीं, जो सहज साध्य एवं सर्व सुलभ है।

मानव के हाथों से जो कुछ भी पर-हित में निकल सके, वह आत्मतुष्टि के साथ-साथ लोक-परलोक का भी सहज साधक हुआ करता है, यह एक सर्वमान्य तथ्य है।

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