फूल की आत्मकथा पर निबंध Essay on Phool Ki Atmakatha in Hindi – Autobiography of A Flower

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Essay on phool ki atmakatha in Hindi

Phool Ki Atmakatha in Hindi

Essay on Phool Ki Atmakatha in Hindi 1000 Words

मैं पुष्प हूँ – फूल! प्रकृति माँ का सब से सुकुमार, कोमल, भावुक और सुन्दर बेटा-पुष्प। उपवन मेरा घर है। हवा मेरी सहचर है। मेरी सुगन्धी का-सा अदृश्य, कोमल, विस्तृत चारों ओर फैला हुआ मेरा संसार है। ऐसा संसार, जिस में आकर कोई भी मनुष्य भाव से भर कर आनन्द से मस्त हुए बिना नहीं रह पाता। यह कहे बिना भी नहीं रह पाता कि बड़े सुगन्धित पुष्प खिले हैं यहाँ ! जी हाँ, ऐसा ही महक और मादकता भरा है मुझ पुष्प का संसार। उतना ही सुन्दर और मुक्त भी।

मैं सुन्दरता का साकार रूप हूँ। अपनी सुन्दरता से सारे वातावरण को तो सुन्दर बना ही देता हूँ, उसकी चर्चा भी दूर-दूर तक फैला दिया करता हूँ ! जी हाँ, मुझे छू कर मेरी सुगन्धी को अपने अदृश्य पंखों में भर कर यह छलिया पवन दूर-दूर तक मेरी सुन्दरता और सुगन्धी का ढिंढोरा पीट आया करता है तब लोग मेरी तरफ भागे आते हैं। मुझे तोड़ कर ले जाते हैं। कोई गुलदस्ते में सजा कर अपने घर की शोभा बढ़ाता है, तो कोई हार में पिरो कर मुझे अपने गले का हार बना लिया करता है। कभी मैं गजरा बन कर किसी सुन्दरी के जूड़े पर धर कर उसकी सुन्दरता में चान्दनी भर देता हूँ, तो कभी अकेला ही बालों में टाँगा जा कर सभी का ध्यान बरबस अपनी ओर खींच लिया करता हूँ। कई बार सुन्दरियों के कानों में झूलकर उन के गोरे कोमल गालों को चूम लेने का सौभाग्य भी पा लिया करता हूँ। भगवान् के भक्त और पुजारी मुझे भगवान् के चरणों पर चढ़ा कर आनन्द पाते हैं, तो निराश प्रेमी अपनी प्रेमीप्रेमिकाओं के मजारों पर अर्पित कर एक तरह की शान्ति प्राप्त करते हैं। कई बार मुझे गुलदस्ते या हार के रूप में विशिष्ट लोगों को भेंट में भी दिया जाता है। अरे हाँ, मुझे ‘एक भारतीय आत्मा’ नामक क्रान्तिकारी कवि की वे पंक्तियाँ आज तक याद हैं, कि जो मुझे देखकर, मेरी भावनाओं का प्रतिनिधित्व करते हुए उसके होंठों पर मचल उठी थीं;

“मुझे तोड़ लेना बनमाली, उस पथ पर तुम देना फेंक:
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ पर जावें वीर अनेक!”

लेकिन ऐसा मान-सम्मान और प्रशंसा-गान मुझे ऐसे ही प्राप्त नहीं हो गया। इसके लिए मुझे बीज के रूप में कई दिनों तक धरती माँ की माटी भरी गोद में घुटते साँसों के साथ बन्द रहना पड़ा है। आप अनुमान नहीं लगा सकते कि हर पल अपने साँसों को घुटते और तन को गलते-सड़ते देखकर तब मेरे मन पर क्या बीता करती थी। उस पर सूर्य की किरणें जब ऊपर से धरती को गर्मा और झुलसा दिया करतीं. तब धरती के भीतर भी कई बार पसीने से तर होकर दम और भी घुटने लगता। तब अचानक कहीं से पानी की कोई धार आकर उस गर्मी से तो राहत पहुँचाती; पर सड़-गल रहे तन की रक्षा उस से भी न हो पाती। कई बार किसी खाद के कड़वे-कसैले स्वाद भी चखने पड़ते, कई बार कड़वी-तीखी दवाइयाँ निगलकर मितली-सी भी आने लगती। कई बार ऐसा भी हुआ कि माली या किसान की खुरपी-फावड़े ने मिट्टी के साथ-साथ मेरे तन-मन को भी उलट-पलट कर रख दिया। इस प्रकार की स्थितियों का सामना करते समय मन में क्या गुजरती है, न तो वह सब बता पाना ही सभव है और न उस सब का आप अनुमान ही लगा सकते हैं।

लेकिन यह क्या? एक दिन मैंने अपने सड-गल चुके शरीर में धरती माँ के आशीर्वाद से एक नया जोश, नया उत्साह अंगड़ाइयाँ लेते हुए अनुभव किया। मुझे लगा कि मैं अपने अंगों का विस्तार फैलाव करते हुए धरती माँ से उछलकर उसकी गोद में आ रहा हूँ। मैंने माली से लगने वाले आदमी को किसी से कहते हुए सुना-‘बड़े सुन्दर अंकुर फूट रहे हैं इस बार तो। तो मुझे समझ आया कि जैसे मेरा नाम ‘अंकुर’ है। वह एक जन्म-नाम हुआ करता है न, वैसा ही कुछ मेरा भी था। कुछ दिन और बीतने पर उस आदमी के मुँह से फिर सुन पड़ा’कितना बढ़िया है यह पौधा। बस, मैंने समझा कि मैं अंकुर नहीं, पौधा हूँ-पौधा । अब वह आदमी मेरा बड़ा ध्यान रखने लगा। ठीक समय पर पानी तो पिलाता ही, कुछ खाद-सी भी दो-एक बार डाल गया। बड़े ध्यान और सावधानी से निराई-गोड़ाई कर के उग आई फालतू घास, खरपतवार आदि को निकाल देता। इस प्रकार पौधे के रूप में लगातार बड़ा होता गया। एक दिन मैंने अपने ऊपरी पोरों में कुछ गाँठे-सी पड़ने का अनुभव किया। बस, चिन्ता में पड़ गया कि यह नई मुसीबत कौन-सी आने वाली है ? अपने इस प्रश्न का उत्तर अभी प्राप्त भी नहीं कर पाया था कि एक बार मैंने उन गाँठों के धीरे-धीरे चटकने की आवाजें सुनीं। ‘हाय राम! यह क्या होने जा रहा है ?’ मैं चौंक गया; लेकिन किसी के आने की आहट पा कर कुछ बोला नहीं, बस चुपचाप देखने लगा।

देखा कुछ क्षण बाद वह आहट मेरे पास आकर रुक गई है। आने वाला मेरा रखवाला माली ही था। वह मेरी दशा देख कर मुस्करा उठा और लगातार मुस्कराता गया। फिर होंठों ही होंठों में बोला-‘सुबह तक ये कलियाँ (गाँठे) अवश्य ही खिल कर मुस्कराता फूल बन जाएँगी।’ ‘फूल ।’ एक बार मैं फिर चौंक पड़ा। पहले बीज, फिर अंकुर उसके बाद पौधा, फिर वे गाँठेसी चटकती हुई और अब फूल ? पता नहीं क्या-क्या बनना है अभी मुझे? लेकिन तब तक रात ढल आई थी, सो वह माली चला गया। मेरी चिन्ता कम नहीं हुई। रात भर चिन्ता में डूबा रहा। जैसे ही प्रभात काल की मन्द पवन का झोंका आया, उसका मधुर-कोमल स्पर्श पाकर मैं पूरी तरह से खिलकर जैसे अपनी ही सुगन्ध से नहा उठा। पवन के और झों के आकर मुझे लोरियाँ देने लगे-देते रहे लगातार। जी हाँ, अब मै खिलकर पुष्प जो बन चुका था। जी, बस इतनी सी ही है मेरी आत्म-कथा!

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