डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन Sarvepalli Radhakrishnan in Hindi Essay

Read Sarvepalli Radhakrishnan in Hindi Essay. डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन पर निबंध। कक्षा 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10, 11 और 12 के बच्चों और कॉलेज के विद्यार्थियों के लिए डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन पर निबंध हिंदी में।

Sarvepalli Radhakrishnan in Hindi Essay – डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन पर निबंध

Sarvepalli Radhakrishnan in Hindi Essay 150 Words

डा0 सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म 5 सितम्बर सन् 1888 में हुआ था। उनकी जयंती उन्हें शिक्षक दिवस के रूप में हमेशा के लिए श्रद्वांजलि अर्पित करने के लिए मनायी जाती है। वह एक महान व्यक्तित्व और एक प्रसिद्व शिक्षक थे। वह एक गरीब परिवार के थे और उन्होंने छात्रवृत्ति के साथ अपनी शिक्षा के लक्ष्य को पूरा किया था। उन्होनें मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज से बी ए और एम ए की डिग्री पूरी की थी। उन्होने भारत, धर्म और दर्शन की परंपरा पर कई लेख और किताबें लिखीं।

वह 1952 से 1962 तक भारत के उपराष्ट्रपति बने और 1962 से 1967 तक भारत के राष्ट्रपति बने। उन्हें 1954 में भारत रत्न से समानित किया गया था। उन्होने अपने जीवन में बहुत कुछ हासिल किया था। वह एक महान शैक्षणिक और मानवतावादी थे, इसलिए उनका जन्मदिन की सालगिरह शिक्षक दिवस के रूप में मनाई जाती है।

Sarvepalli Radhakrishnan in Hindi Essay 500 Words

डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी एक महान व्यक्ति और प्रसिद्ध शिक्षक थे। डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म 5 सितंबर 1888 को भारत के तिरुतनि स्थान पर (वर्तमान में आंध्रप्रदेश) हुआ था। उनके पिता का नाम ‘सर्वपल्ली वीरास्वामी और माता का नाम ‘सीताम्मा’ था। उनके पिता राजस्व विभाग में काम करते थे। डॉ. राधाकृष्णन एक गरीब किन्तु विद्वान ब्राह्मण की सन्तान थे। इनके 4 भाई और 1 बहन थी। उनका परिवार अत्यंत धार्मिक था। उनका बाल्यकाल तिरुतनी एवं तिरुपति जैसे धार्मिक स्थलों पर ही व्यतीत हुआ।

इनके परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी इसलिये इन्होंने अपनी अधिकतर शिक्षा छात्रवृत्ति की मदद से पूरी की। वह शुरू से ही पढाई-लिखाई में काफी रूचि रखते थे। डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की प्रारंभिक शिक्षा क्रिश्चियन मिशनरी संस्था लुथार्न मिशन स्कूल, तिरुपति में 1896-1900 के बीच हुई। 1900-1904 तक उन्होंने वेल्लूर में शिक्षा ग्रहण किया था। सन 1902 में मैट्रिक स्तर की परीक्षा उत्तीर्ण की और उन्हें छात्रवृत्ति भी प्राप्त हुई। उन्होंने मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज, मद्रास में शिक्षा ग्रहण की। उन्होंने दर्शन-शास्त्र में एम्. ए. किया और सन 1916 में मद्रास रेजीडेंसी कॉलेज में दर्शन-शास्त्र के सहायक प्राध्यापक नियुक्त हुए। बाद में उसी कॉलेज में वे प्राध्यापक भी रहे। वह बचपन से ही मेधावी छात्रै थे। 1903 में 16 वर्ष की आयु में ही उनका विवाह दूर के रिश्ते की बहन ‘सिवाकामू’ के साथ हुआ। उस समय उनकी फ्ली की आयु मात्र 10 बर्ष की थी।

डॉ. राधाकृष्णन एक अच्छे लेखक भी थे जिन्होंने भारतीय परंपरा, धर्म और दर्शन पर कई लेख और किताबें लिखी हैं। जिनमें ‘द फिलासोफी ऑफ द उपनिषद’, ‘ईस्ट एंड वेस्ट-सम रिफ्लेक्शन्स’, ‘भगवदगीता’, ‘ईस्टर्न रिलीजन एंड वेस्टर्न थाट’, ‘एन आइडियलिस्ट व्यू ऑफ लाइफ’, ‘इंडियन फिलासोफी’, ‘हिन्दू व्यू ऑफ लाइफ’ इत्यादि प्रमुख हैं।

डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी 13 मई 1952 से 12 मई 1962 तक भारत के उप-राष्ट्रपति के पद पर रहे। उसके बाद वे 13 मई 1962 से 13 मई 1967 तक भारत के राष्ट्रपति के पद पर रहे। वह स्वतंत्र भारत के दूसरे राष्ट्रपति थे।

वे भारतीय संस्कृति के संवाहक, महान दार्शनिक, प्रख्यात शिक्षाविद और एक आस्थावान हिन्दू विचारक थे। उनके इन्हीं गुणों के कारण सन् 1954 में भारत सरकार ने उन्हें सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया था। उनके द्वारा किये गये महान कार्यों के कारण उनको श्रद्धांजलि देने के लिये 5 सितंबर को पूरे देश में विद्यार्थियों द्वारा हर वर्ष उनका जन्मदिन शिक्षक दिवस के रुप में मनाया जाता है। उनकी मृत्यु 17 अप्रैल 1975 को 86 वर्ष की आयु में हुई थी। शिक्षा जगत में डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी का नाम सदैव याद रखा जाएगा।

 

Sarvepalli Radhakrishnan in Hindi Essay 800 Words

डॉ० राधाकृष्णन का जन्म 6 सितम्बर सन् 1888 ई० को तत्कालीन मद्रास राज्य के तिरुतनी नामक गांव में एक अत्यन्त धार्मिक प्रवृत्ति के परिवार में हुआ था। यह गांव अब आन्ध्र प्रदेश में है। माता-पिता बड़े धार्मिक विचारों के थे। प्राथमिक तथा माध्यमिक शिक्षा मिशन स्कूल, तिरुपति तथा वेल्लूर कॉलेज, वेल्लूर में प्राप्त की। इसके पश्चात् वे शिक्षा के लिए मद्रास (चेन्नई) गए। सन् 1905 में उन्होंने मद्रास के क्रिश्चियन कॉलेज में प्रवेश लिया। इस विद्यालय से बी. ए. की उपाधि प्राप्त करने के बाद एम. ए. में प्रवेश लिया और एम. ए. की उपाधि प्राप्त की।

पढ़ाई पूरी करने के पश्चात् सन् 1909 में वे मद्रास के एक कॉलिज में दर्शनशास्त्र के अध्यापक के रूप में नियुक्त हुए। इसी क्षेत्र में कार्य करते हुए वे बाद में कलकत्ता तथा मैसूर विश्वविद्यालयों में भी दर्शन शास्त्र के प्रोफेसर के रूप में कार्य करते रहे। आंध्र विश्वविद्यालय के कुलपति के गरिमामय पद पर भी वे कार्य करते रहे हैं। इसी प्रकार हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में भी उन्होंने कार्य किया। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में लम्बे समय तक दर्शन शास्त्र के प्रोफेसर के रूप में उन्होंने कार्य किया।

वे अनेक राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों एवं शिष्टमंडलों का नेतृत्व करते रहे। यूनेस्को के एग्जीक्यूटिव बोर्ड के अध्यक्ष पद के रूप में उन्होंने 1948-49 तक कार्य किया। सोवियत संघ में उन्होंने भारतीय राजदूत के रूप में भी कार्य किया। भारत के उपराष्ट्रपति के पद पर वे सन् 1952-62 तक सुशोभित रहे। सन् 1962 से सन् 1967 तक वे भारत के महामहिम राष्ट्रपति के रूप में कार्य करते रहे। इसी दौर में 1962 में चीन तथा सन् 1965 में पाक के साथ युद्ध लड़े गए थे।

डॉ. राधाकृष्णन को हार्वर्ड विश्वविद्यालय तथा ओवर्लिन कॉलेज द्वारा डॉ. ऑफ लॉ की उपाधियां भी प्रदान की गईं। भारत और विश्व में अनेक विश्वविद्यालयों ने डॉ. राधाकृष्णन को मानद ‘डॉक्ट्रेट’ की उपाधियां दी जिनकी संख्या सौ से कम नहीं है। यह उनकी विद्वता के प्रमाण देती हैं। सन् 1954 में भारत सरकार ने उन्हें सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न” प्रदान किया। इस सम्मान से सम्मानित किए जाने वाले वे भारत के प्रथम तीन व्यक्तियों में से एक थे। उन्हें विश्व प्रसिद्ध पुरस्कार टेम्पलटन भी प्राप्त हुआ था। उनका जन्म-दिवस 5 सितम्बर ‘शिक्षक दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। अपने पवित्र जीवन की अवधि पूर्ण कर वे 87 वर्ष की आयु में 16 अप्रैल सन् 1975 को स्वर्ग सिधार गए।

डॉ. राधाकृष्णन का जीवन एक निष्काम कर्मयोगी की भांति था। वे भारतीय संस्कृति के प्रेमी, प्रचारक, विद्वान और उपासक थे। वे महान् शिक्षा शास्त्री थे। उनकी शिक्षा और चिंतन का मूल आधार महान् भारतीय संस्कृति थी। अत: उनके विचार किसी एक ही समाज और व्यक्ति के कल्याण से सम्बन्ध न रख कर अखिल मानवता के उत्थान से जुड़े थे। उनके हृदय में गौतम की करुणा थी और उनके कर्म तथा चिंतन में गांधी की अहिंसा। वे भारत के सन्तों और तपस्वियों के प्रतिबिम्ब थे। वे भारत के आम आदमी के विश्वास, उदारता, सहजता, ईमानदारी के साकार रूप थे। वे जितने महान् थे, उतने ही विनम्र भी थे। ऊंचे से ऊंचे पद की ओर बढ़ते हुए वे निरन्तर पवित्र और निश्चल होते गए। ईश्वर में गहन आस्था रखते हुए वे कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी समर्पण भाव से पुरुषार्थ के मार्ग पर बढ़ते रहते थे।

विश्व के विभिन्न देशों में उन्होंने भारतीय और पाश्चात्य धर्म तथा दर्शन पर अपने प्रभावशाली भाषण दिए। उनके भाषणों में मानो विवेकानन्द और दयानन्द सरस्वती की पूँज होती थी। उनकी आध्यात्मिक शक्ति उनके भाषणों को चिंतन, कल्पना, विचार और भाषा से मण्डित करती थी। एक बार इंग्लैण्ड में रात्रि के भोजन के दौरान उन्हें एक अंग्रेज़ ने पूछा कि क्या तुम्हारी कोई संस्कृति है ? तुम बिखरे हुए हो। कोई गोरा, कोई काला, कोई बौना, कोई लम्बा, कोई धोती, कोई लुंगी, कोई कुर्ता तो कोई कमीज़ पहनता है। हम अंग्रेज सब एक जैसे हैं-गोरे-गोरे और लाल-लाल। ऐसा क्यों ? डॉ. राधाकृष्णन ने तपाक से उत्तर दिया – घोडे अलग-अलग, रूप-रंग और आकार के होते हैं पर गधे एक जैसे होते हैं। अलग-अलग रंग और विविधता तो विकास के लक्षण होते हैं।

डॉ. राधाकृष्णन का व्यक्तित्व सृजनात्मक व्यक्त्वि था। दर्शन और संस्कृति पर उन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की, जिनमें अत्याधिक लोकप्रिय रचनाएं हैं ‘भगवद्गीता’, ‘ईस्टर्न रिलीजन, वेस्टर्न थॉट’, ‘हिन्दू व्यू ऑफ लाइफ’, ‘फिलॉसोफी ऑफ रवीन्द्रनाथ टैगोर’, ‘एन आइडिलिस्ट व्यू ऑफ लाइफ’, ‘दि इथिक्स ऑफ वेदान्त एण्ड इट्स प्रीसपोज़ीशन’ आदि-आदि। हिन्दी में अनुवादित उनकी लोकप्रिय कृतियां हैं – भारतीय संस्कृति, सत्य की खोज, संस्कृति तथा समाज इत्यादि।

डॉ. राधाकृष्णन दर्शनशास्त्र को एक रचनात्मक विद्या मानते थे। उनका विश्वास था कि दर्शन की उत्पत्ति तो सत्य के अनुभवों के फलस्वरूप होती है। सत्य की खोज के इतिहास को पढ़ने से दर्शन जन्म नहीं लेता है। उनकी दृष्टि में – “दर्शन का उद्देश्य जीवन की व्याख्या करना नहीं, जीवन को बदलना है।” उनकी दृष्टि में मानव का ही विशेष महत्त्व है। अत: वे कहते हैं – “प्रत्येक व्यक्ति ही ईश्वर की प्रतिमा है।”

Sarvepalli Radhakrishnan in Hindi Essay 1000 Words

इस विशाल विश्व में सृष्टि के आरम्भ से लेकर अब तक असंख्य मानव जन्म लेकर मृत्यु के ग्रास बन गए हैं और वे विस्मृत हो गए हैं। कुछ महामानव ऐसे भी होते हैं जिन्हें इतिहास विस्मृत नहीं करता है अपितु सदैव उनका स्मरण करता है। ऐसे महामानव मानवता का मार्ग दर्शन करते हैं। इस जीवन की सार्थकता भी इसी तथ्य में है कि मनुष्य केवल पशु की भांति ही जीवनयापन न करे। अपने कार्य, विचार और चिंतन से समाज और विश्व के कल्याण के लिए यत्नशील होना मानवधर्म है। इस धर्म को पहचानने वाले व्यक्ति युग-पुरुष कहलाते हैं। भारतीय इतिहास के महापुरुषों की गाथा में एक व्यक्तित्व डॉ. राधाकृष्णन् का भी इसी प्रकार का व्यक्तित्व रहा है। अपनी सादगी और स्पष्टवादिता, सौम्यता और विनम्रता के लिए वे विशेष रूप में उसी प्रकार जाने जाते हैं जिस प्रकार अपनी विद्वता के लिए।

जीवन-परिचय

डॉ. राधाकृष्णन् का जन्म 6 सितम्बर सन् 1888 ई. को तत्कालीन मद्रास राज्य के तिरुतनी नामक गाँव के एक अत्यन्त धार्मिक प्रवृति के परिवार में हुआ था। यह गाँव अब आन्ध्रप्रदेश में है। माता-पिता धार्मिक विचारों के थे लेकिन रूढ़िवादि प्रवृत्ति के नहीं थे। शिक्षा की आरम्भिक व्यवस्था तिरुपति में हुई। उन्होंने प्राथमिक तथा माध्यमिक शिक्षा मिशन स्कूल, तिरुपति तथा वेल्लूर कॉलेज, वेल्लूर में प्राप्त की। इसके पश्चात् वे शिक्षा के लिए मद्रास गए। सन् 1905 में उन्होंने मद्रास के क्रिश्चियन कॉलेज में प्रवेश लिया। इस विद्यालय से बी. ए. की उपाधि प्राप्त करने के बाद एम. ए. में भी प्रवेश लिया और एम. ए. की उपाधि प्राप्त की। अध्ययनपूर्ण करने के पश्चात् सन् 1909 में वे मद्रास के एक कॉलेज में दर्शनशास्त्र के अध्यापक के रूप में नियुक्त हुए। इसी क्षेत्र में कार्य करते हुए व बाद में कलकत्ता तथा मैसूर विश्वविद्यालयों में भी दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर के रूप में कार्य करते रहे। आंध्र विश्वविद्यालय के कुलपत्ति के गरिमामय पद पर भी वे कार्य करते रहे हैं। इसी प्रकार हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में भी उन्होंने कार्य किया। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में वे लम्बे समय तक दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर के रूप में भी कार्य करते रहे।

वे अनेक राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों एवं शिष्टमंडलों का नेतृत्व करते रहे। यूनेस्को के एक्जीक्यूटि बोर्ड के अध्यक्ष पद के रूप में उन्होंने 1948-49 तक कार्य किया। सोवियत संघ में उन्होंने भारतीय राजदूत के रूप में भी कार्य किया। भारत के उपराष्ट्रपति के पद पर वे सन् 1952-62 तक सुशोभित रहे। सन् 1962 से सन् 1967 तक वे भारत के महामहिम राष्ट्रपति के रूप में कार्य करते रहे। इसी दौर में 1962 में चीन तथा सन 1962 में पाक के साथ युद्ध लड़े गए थे।

डॉ. राधाकृष्णन् को हार्वर्ड विश्वविद्यालय तथा ओवर्लिन कॉलेज द्वारा डॉ. ऑफ लॉ उपाधियां भी प्रदान की गई। भारत और विश्व के अनेक विश्वविद्यालयों ने डॉ. राधाकृष्णन को मानद डॉक्ट्रेट की उपाधियां दी जिनकी संख्या सौ से कम नहीं है तथा जो उनके विद्वता के प्रमाण देती हैं। सन् 1954 में भारत सरकार ने उन्हें सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ प्रदान किया। इस सम्मान से सम्मानित किए जाने वाले वे भारत के प्रथम तीन व्यक्तियों में से एक थे। उन्हें विश्व प्रसिद्ध पुरस्सर टेम्पलटन भी प्राप्त हुआ था। उनका जन्म-दिवस 5 सितम्बर ‘शिक्षक दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। अपने पवित्र जीवन की अवधिपूर्ण कर वे 87 वर्ष की आयु में 16 अप्रैल सन् 1975 को स्वर्ग सिधार गए।

व्यक्तित्व और चिंतन

डॉ. राधाकृष्णन का जीवन एक निष्काम कर्मयोगी की भांति था। वे भारतीय संस्कृति के प्रेमी, प्रचारक, विद्वान और उपासक थे। वे महान् शिक्षाशास्त्री थे। उनकी शिक्षा और चिंतन का मूल आधार महान् भारतीय संस्कृति थी। अत: उनके विचार किसी एक ही समाज और व्यक्ति के कल्याण से सम्बन्ध न रख कर अखिल मानवता के अभ्युदय से जुड़े थे। उनके हृदय में गौतम की करुणा थी और उनके कर्म तथा चिंतन में गांधी की अहिंसा। वे भारत के सन्तों और तपस्वियों तथा मनीषियों के प्रतिबिम्ब थे। वे भारत के आम आदमी के विश्वास, उदारता, सहजता, ईमानदारी के साकार रूप थे। वे जितने महान् थे, जितने विद्वान् थे उतने ही विनम्र भी थे। ऊँचे से ऊँचे पद की ओर बढ़ते हुए वे निरंतर पवित्र और निश्चल होते गए। ईश्वर में गहन आस्था रखते हुए वे कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी समर्पण भाव से पुरुषार्थ के मार्ग पर अविचल रहते थे। भाषण कला के तो वे आचार्य थे। विश्व के विभिन्न देशों में उन्होंने भारतीय और पाश्चात्य धर्म तथा दर्शन पर अपने सार गर्भित भाषण दिए। उनके भाषणों में मानो विवेकानन्द और दयानन्द सरस्वती की गूंज होती थी। उनकी आध्यात्मिक शक्ति तथा हाजिर-जवाबी उनके भाषणों को चिंतन, कल्पना, विचार और भाषा से मण्डित करती थी। एक बार इंगलैण्ड में रात्रि के भोजन के दौरान उन्हें एक अंग्रेज़ ने पूछा कि क्या कोई तुम्हारी संस्कृति है ? तुम बिखरे हुए हो। कोई गोरा, कोई काला, कोई बौना, कोई लम्बा, कोई धोती पहनता, कोई लुंगी, कोई कुर्ता तो कोई कमीज़। हम अंग्रेज़ सब एक जैसे हैं–गोरे-गोरे और लाल-लाल। ऐसा क्यों ? डॉ. राधाकृष्णन ने तपाक से उत्तर दिया-घोड़े अलग-अलग, रूप-रंग और आकार के होते हैं पर गधे एक जैसे होते हैं। अलग-अलग रंग और विविधता तो विकास के लक्षण लेते हैं।

डॉ. राधाकृष्णन् का व्यक्तित्व सृजनात्मक व्यक्तित्व था। दर्शन और संस्कृति पर उन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की है जिनमें अत्यधिक लोकप्रिय रचनाएँ है—’भगवद्गीता’, ‘ईस्टर्न रिलीजन वेस्टर्न थॉट’, ‘हिन्दू व्यू ऑफ लाइफ’, ‘फिलॉसोफी ऑफ वीन्द्रनाथ टैगोर, दिफिलॉसोफी ऑफ द उपनिषद्स’, ईस्ट एन्ड वेस्ट सम रिफलेक्शन्स, इन्डियन फिलॉसोफी’, ‘एन आइडिलिस्ट व्यू ऑफ लाइफ’, ‘दि एथिम्स ऑफ वेदान्त एण्ड इट्स प्रिसयोजीशन आदि-आदि। हिन्दी में अनुवादित उनकी लोकप्रिय कृत्तियाँ हैं-‘भारतीय संस्कृति, सत्य की खोज, संस्कृति तथा समाज, आदि-आदि।

डॉ. राधाकृष्णन् मानवतावादी विचारधारा के पोषक थे। जीवन को वे केवल आदर्श रूप में नहीं उसके सत्य को जानते थे। उनका कहना था – “रोटी के ब्रह्म को पहचानने के बाद ज्ञान के ब्रह्म से साक्षात्कार अधिक सरल हो जाता है।” वे मनुष्य के भौतिक ही नहीं आध्यात्मिक विकास को महत्त्व देते थे। उनकी दृष्टि में मनुष्य अपकर्मों से दानव बन जाता है। मानव का महामानव होना उसका चमत्कार है और मानव का मानव होना उसकी विजय है।” वे दर्शनशास्त्र को एक रचनात्मक विद्या मानते थे। उनका विश्वास था कि दर्शन की उत्पत्ति तो सत्य के अनुभवों के फलस्वरूप होती है। सत्य की खोजों के इतिहास को पढ़ने से दर्शन जन्म नहीं लेता है। उनकी दृष्टि में-“दर्शन का उद्देश्य जीवन की व्याख्या करना नहीं, जीवन को बदलना है।” उनकी मानवतावादी दृष्टि में मानव का ही विशेष महत्त्व था। अत: वे कहते थे —“प्रत्येक व्यक्ति ही ईश्वर की प्रतिमा है।” वे वैज्ञानिक उन्नति के विरोधी नहीं थे परन्तु उनका यह दृढ़ विश्वास था कि इसका उपयोग विनाश के लिए नहीं निर्माण के लिए ही होना चाहिए, मानवता की रक्षा के लिए ही होना चाहिए। अत: उन्होंने कहा था—चिड़ियों की तरह हवा में उड़ना और मछलियों की तरह पानी में तैरना सीखने के बाद, अब हमें मनुष्य की तरह ज़मीन पर चलना सीखना है।”

उपसंहार

सौम्य, सहज और मानवीय व्यक्तित्व के धनी डॉ. राधाकृष्णन् भारतीय संस्कृति के उपासक थे। उनके संपूर्ण चिंतन का आधार धरती पर मानव जीवन को अहिंसा और प्रेममय बनाना था। वे आध्यात्मवादी थे परन्तु इससे पहले मानव जीवन के पोषक थे। उनका जीवन स्वच्छ, पवित्र और निष्कपट था। वे धर्म और राजनीति, दर्शन और विज्ञान के सामंजस्य का लक्ष्य अखिल विश्व का अम्युदय मानते थे।

More Essay’s in Hindi

Biography of Manmohan Singh in Hindi

Narendra Modi Biography in Hindi

Biography of APJ Abdul Kalam in Hindi

Atal Bihari Vajpayee Biography in Hindi

Dr Rajendra Prasad biography in Hindi

Biography of Vikram Sarabhai in Hindi

Thank you for reading. Don’t forget to give us your feedback.

अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए हमारे फेसबुक पेज को लाइक करे।

Add a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *