Essay on Shramdaan in Hindi श्रमदान पर निबंध

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Essay on Shramdaan in Hindi

दान से बड़ा न तो कोई तप है और न ही कोई पुजा। भारतीय सभ्यता और संस्कृति में श्रम को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है, इसके साथ ही दान-कर्म को भी एक पुण्यदायक कार्य माना गया है। भारतीय काव्यशास्त्रियों ने नौ रसों में जो एक प्रमुख रस वीर रस की अवधारणा प्रस्तुत की है, उसके अनेक भेदों में से एक भेद ‘दानवीर’ भी किया गया है। कहने का तात्पर्य यह है कि दान चाहे वस्त्र का हो, अन्न का हो अथवा श्रम का; वह एक वीरतापूर्ण कार्य है। ऐसा वीरतापूर्ण कार्य जिसे सभी व्यक्ति नहीं कर सकते, जो करता अथवा कर सकता है, वह उस क्षेत्र का वीर कहलाता है।

भारतीय सांस्कृतिक परिकल्पना में अन्य सभी तरह के दानों की बात तो अत्यंत प्राचीन काल से मिलने लगती है; पर श्रमदान अपेक्षाकृत आधुनिक परिकल्पना है। भारत जैसे गरीब देश में, जहाँ निर्माण और विकास के साधनों का अभाव है, इस तरह के दान की कल्पना संभव Essay on Worker in Hindiहो सकती थी। इसलिए श्रमदान को हम भारत की अपनी विशुद्ध और मौलिक कल्पना कह सकते हैं। ‘श्रम’ और ‘दान’ इन दो शब्दों के मेल से बना है ‘श्रमदान’ शब्द, जिस की पहले कहीं सूझ अथवा कल्पना तक सुलभ नहीं है। ‘श्रम’ का अर्थ है परिश्रम और ‘दान’ का अर्थ है जरुरतमंद की जरुरत पूरी करने के लिए कुछ देना। अर्थात् जब किसी व्यक्तिगत अथवा सामूहिक अभाव की पूर्ति के लिए किसी एक अथवा अनेक व्यक्तियों द्वारा मुफ्त में, बिना पारिश्रमिक अथवा और कुछ लिए-दिए काम किया जाता है, तो ऐसी स्थिति एवं कार्य को श्रमदान कहा जाता है।

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज में रहते हुए हमारे आस-पास कोई ऐसा व्यक्ति अथवा घर-परिवार हो सकता है जो किसी दैवी आपदा अथवा दुर्घटनावश अपने खेतों में जुताई नहीं कर पाता, टूटे-फूटे घर की मरम्मत नहीं कर सकता अथवा अकेला रह जाने के कारण कोई विशेष कार्य कर पाने में असमर्थ होता है, तब आस-पड़ोस के लोगों द्वारा, नि:स्वार्थ भाव से आगे आकर उसका हाथ बँटा कर, अपेक्षित कार्य की पूर्ति कराने में यथासंभव शारीरिक श्रम से सहायता करके कार्य पूर्ण कर देना श्रमदान कहलाता है। यह तो हुआ वैयक्तिक स्तर के श्रमदान का रूप। इससे भी बढ़कर महत्त्व उस श्रमदान का माना जाता है जो समष्टि अथवा समूह के लाभ के लिए सामूहिक स्तर पर किया जाता है। जैसे गाँव को जाने वाले ऊबड़-खाबड़ रास्ते को सामूहिक श्रमदान द्वारा सीधा-सपाट और गाड़ी आदि के चल सकने योग्य बना देना, अथवा सामूहिक परिश्रम कर के समुदाय भवन, पंचायतघर, बारातघर या इसी तरह के उपयोगी भवन आदि का निर्माण कर देना श्रमदान का एक स्पष्ट पक्ष है।

श्रमदान के उपर्युक्त विवेचन-विश्लेषण से उसका मूल्य और मान अर्थात् उपयोग और महत्त्व लगभग पूरी तरह से स्पष्ट हो जाता है। इसे हम एक तरह का सामूहिक-सामाजिक कर्म कह सकते हैं। भारतीय सभ्यता-संस्कृति में जिस तरह यज्ञ को एक पवित्र सामूहिक अनुष्ठान माना गया है, श्रमदान का महत्त्व और उपयोग को किसी भी तरह उस से कम नहीं कहा जा सकता। जिस प्रकार यज्ञों का अनुष्ठान मानव-समाज के हित के लिए किया जाता है, उसी तरह श्रमदान भी सामूहिक हित और विकास के लिए, सब की सुख-सुविधा के लिए किया जाने वाला कार्य है। श्रमदान करने वाला व्यक्ति भी उसी तरह संतुष्टि और आत्मिक आनंद प्राप्त करता है, जैसे यज्ञ अथर्वा कोई अन्य धर्म-कर्म द्वारा। इस प्रकार, हम कह सकते हैं कि श्रमदान का सामाजिक महत्त्व तो है ही, इसका धार्मिक महत्त्व भी है।

श्रमदान करके राष्ट्र-निर्माण के छोटे-बड़े अनेक कार्य पूरे किए जा सकते हैं। प्रमुखतया दूर-दराज़ के देहातों में, जहाँ निर्माण-साधनों का काफी अभाव है, कई बार साधन मौजूद रहते हैं, पर उनको लेकर कार्य करने वालों का अभाव अथवा धन-जन की कमी के कारण पूर्ण नहीं हो पाता। ऐसी स्थिति में श्रमदान करके कई तरह के उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण कार्य संपन्न किये जा सकते हैं। भारत में अनेक सार्वजनिक भवनों, सड़कों आदि का निर्माण श्रमदान करके तो निर्माण किया गया है। कई जगह वर्षा-बाढ़ से बचाव करने वाले बाँध भी बनाए गए हैं। पानी की कमी पूरी करने के लिए कुएँ तक खोदे गए हैं। कई बार ऐसा भी हुआ है कि नगरों के स्कूलों-कॉलेजों के छात्र-छात्राओं ने एन-सी-सी के कैम्प लगा कर दूर-दराज के देहातों में श्रमदान करके वहाँ सफाई भी की है और लोगों को इस तरह के कार्य करते रहने के लिए तैयार भी किया है। और भी कई तरह की गैर-सरकारी संस्थाएँ इस प्रकार के समाज-सेवा के कार्य करती रहती हैं।

श्रमदान एक ऐसा रास्ता है, जिस पर चलकर अल्प साधनों अथवा साधनहीनता की स्थिति में भी सामाजिक जीवन के हित में, राष्ट्र-निर्माण के अनेक कार्य आसानी से संपन्न किये जा सकते हैं। साथ ही इसके और भी कई लोभ हैं, संपन्न श्रमदान से आपसी प्रेम, सौहार्द, भाईचारा में भी वृद्धि होती है। श्रमदान को एक तरह का यज्ञ, एक तरह का पुण्य कर्म मानकर प्रत्येक व्यक्ति को उसके लिए हमेशा तत्पर रहना चाहिए।

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