Biography of Subhash Chandra Bose in Hindi

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Biography of Subhash Chandra Bose in Hindi

‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ – वह नारा था, जिसने लाखों लोगों को आजादी की लड़ाई में हिस्सा लेने की प्रेरणा दी। यह नारा दिया था सुभाषचंद्र बोस ने, जिन्हें हम हिंदुस्तान के लोग प्यार से नेताजी कहते हैं। सुभाष का जन्म 23 जनवरी, 1897 को उड़ीसा के कटक में हुआ था। उनके पिता जानकीनाथ बोस एक मशहूर वकील थे, जबकि माँ प्रभावती देवी एक धार्मिक महिला थीं। 1920 में सुभाष ने इंग्लैंड से भारतीय सिविल सेवा की परीक्षा पास की, लेकिन इसी बीच भारत में जलियाँवाला बाग कांड हो गया। सुभाष को इससे बहुत ठेस पहुँची और वे ट्रेनिंग के दौरान ही 1921 में भारत लौट आए। यहाँ उन पर महात्मा गांधी का बहुत प्रभाव पड़ा और वे कांग्रेस में शामिल हो गए। वे देश की आजादी के लिए किए जाने वाले आंदोलनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने लगे। 1930 में वे सविनय अवज्ञा आंदोलन के सिलसिले में जेल गए, लेकिन 1931 में गांधी-इरविन समझौता होने पर उन्हें रिहा कर दिया गया।

सुभाष ने यूरोप में रहते हुए वहाँ के देशों की राजधानियों में अपने केंद्र स्थापित करने का प्रयास किया, ताकि भारत और यूरोपीय देशों के बीच राजनीतिक–सांस्कृतिक संपर्क बन और बढ़ सकें। भारत में प्रवेश करने को लेकर अपने पर लगे प्रतिबंधों की परवाह न करते हुए सुभाष भारत लौटे और एक बार फिर गिरफ्तार हो गए। आखिर 1937 में वे फिर रिहा हुए और अगले साल कांग्रेस के हरिपुरा सत्र के अध्यक्ष बने। इस दौरान उन्होंने अंग्रेजों को देश से बाहर खदेड़ने के लिए एक योजना के अनुसार काम करने पर बल दिया। सुभाष अगले चुनावों में इसी पद पर एक बार फिर जीते। दूसरे विश्वयुद्ध के समय उन्होंने अंग्रेजों को छ: महीने का समय देते हुए कहा कि यदि इस बीच अंग्रेज़ भारत नहीं छोड़ते तो उन्हें विद्रोह के लिए तैयार रहना होगा। सुभाष की इस बात का विरोध होने पर उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष का पद छोड़ एक प्रगतिशील समूह ‘फॉरवर्ड ब्लॉक’ बनाया। जब दूसरे विश्वयुद्ध में अंग्रेजों की ओर से लड़ने के लिए भारतीय सेना को भेजा गया, तो सुभाष ने इसका भरपूर विरोध किया। इससे अंग्रेज़ सरकार डर गई और सुभाष को कोलकाता में नज़रबंद कर दिया। जनवरी, 1941 में सुभाष कोलकाता के अपने घर से भाग निकले और अफगानिस्तान होते हुए जर्मनी पहुँचे।

दूसरे विश्वयुद्ध में जर्मनी और जापान अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ रहे थे, इसलिए सुभाष ने उनसे मदद माँगी । 1943 में वे सिंगापुर चले गए और ‘आज़ाद हिंद फौज’ का गठन किया। इसमें अधिकतर युद्धबंदी थे। लेकिन दूसरे विश्वयुद्ध में जापान और जर्मनी की हार के कारण वह अपने मकसद में सफल न हो सके। माना जाता है कि 18 अगस्त, 1945 को सुभाष की ताइवान के ताइपेह के ऊपर विमान दुर्घटना में मृत्यु हो गई, हालाँकि आज तक इसके स्पष्ट प्रमाण नहीं मिले हैं।

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