विद्यार्थी जीवन में अनुशासन का महत्व Vidyarthi Jeevan Mein Anushasan Ka Mahatva

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Vidyarthi Jeevan Mein Anushasan Ka Mahatva

Vidyarthi Jeevan Mein Anushasan Ka Mahatva Essay

Vidyarthi Jeevan Mein Anushasan Ka Mahatva 600 Words

विद्यार्थी जीवन में अनुशासन का महत्व विद्यार्थी काल को साधना कहा गया है। जीवन के इस चरण को आगामी जीवन का आधार ही नहीं, अपितु निर्माण काल कहा जाता है। प्रत्येक मनुष्य के जीवन में यह वह समय होता है जब वह न सिर्फ अपने माता-पिता, भाई बहन, संबंधियों आदि के प्रति एक सभ्य और सुसंस्कृत व्यवहार वह सीखता है, अपितु वह अनेकानेक ज्ञान, अनुशासनों के माध्यम से शिक्षा प्राप्त करके स्वयं अपना और अपने समाज और अन्ततः अपने देश के विकास में अपना योगदान प्रदान करता है। किन्तु यह सब विद्यार्थी जीवन के सभ्य, संस्कारित और स्वस्थ स्वरूप पर निर्भर होता है और इस बारे में कोई भी शिक्षित व्यक्ति इस राय से अलग कोई राय नहीं रखेगा कि विद्यार्थी जीवन में ये सब मूल्यवान बातें अनुशासन के महत्व को समझे बिना और उसे अपने आचरण में उतारे बिना नहीं आ सकती हैं। यह बात सौ फीसदी सच कही जा सकती है कि अगर कोई विद्यार्थी अपने जीवन में अनुशासन का पूरी ईमानदारी और कठोरता से अनुपालन करता है, तो उसे जीवन में ऊँचाइयों पर पहुंचने से कोई नहीं रोक सकता।

‘अनुशासन’ एक पवित्र शब्द है। वस्तुतः यह अंग्रेजी के ‘डिसीप्लीन’ शब्द का ठेठ समानार्थक शब्द मात्र नहीं है। अनुशासन’ शब्द स्वयं में जहां ‘स्व-शासन’ का अर्थ संजोया हुआ है वही अंग्रेजी शब्द ‘Discipline’ एक सैनिक नियम-कायदों के ऐच्छिक-अनैच्छिक अनुपालन के अर्थ में है। अनुशासन का शाब्दिक अर्थ होता है ‘किसी गुरूजन के शासन का अनुगमन और पालन करना।’ विद्यार्थी जीवन में मूल्यों और संस्कारों की जिस अमूल्य धरोहर का संरक्षण अनुशासन और कठोर साधना से संभव होता है, वह अनुशासन विद्यार्थी को सर्वप्रथम अपने परिवार से, उसके बाद व्यापक रूप से शिक्षालयों से और इसी के साथ समाज के अन्य अनेकानेक विशिष्ट और सम्मानीय व्यक्तियों से प्राप्त होता है। – यह बात सर्वविदित है कि बालक का प्रथम विद्यालय उसका अपना घर ही होता है। इस तथ्य को किसी भी भांति नकारा नहीं जा सकता। बालक को पारिवारिक और सामाजिक सद्व्यवहारों, आदर्शसूचक क्रियाकलापों और दूसरों के प्रति सदैव सम्मानजनक रवैये की और उन्हें अपने जीवन में धारण करने की शिक्षा उसे पहले अपने घर से ही प्राप्त होती है।

यह सर्वमान्य तथ्य है कि मनुष्य का अपना विकास उसके व्यापक अनुशासित जीवन पर निर्भर करता है। अनुशासनहीनता न केवल एक सामाजिक-दुर्व्यहार होता है, अपितु वह अनुशासनहीन मनुष्य के अपने विनाश का कारण भी होता है। इस बात कों आप अपने आस-पास के समग्र परिवेश में भी देख सकते हैं। विद्यालय इसे देखने-समझने का सबसे प्रभावकारी स्थान होता है। विद्यार्थी अपने अध्ययन काल में निरन्तर इस बात को महसूस करते हैं। अनुशासित विद्यार्थी एक तरफ जहाँ हर प्रकार के कार्यक्रमों में भाग लेता है, अपने अध्ययन को निरन्तर उच्च स्तर पर बनाए रखता है, अपने गुरूजनों, शिक्षकों आदि को यथोचित आदर और सम्मान देता है और अपने सहपाठियों से मित्रता और प्रेम-भाव बनाए रखता है, वहीं दूसरी ओर एक अनुशासनहीन विद्यार्थी इन सभी चीजों से उपेक्षित बना रहता है और वह अपने समय का कभी भी भलीभांति उपयोग नहीं कर पाता है। इस कारण वह न केवल अपने अध्ययन कर्म से विमुख हो जाता है अपितु उसके गुरू जन, शिक्षक गण एवं उसके अपने सहपाठी भी उसे उपेक्षित कर देते हैं।

अनुशासित जीवन ही वास्तव में पूर्ण जीवन है। इस सत्य को केवल वो ही समझते हैं जो अपने जीवन में अनुशासन को महत्व देते हैं और उसकी महत्ता को समझते हैं। परन्तु अनुशासन का पाठ विद्यार्थी को उनके शिक्षा काम में पढ़ाया जाता है। इस अमूल्य निधि को जो विद्यार्थी अपने जीवन में धारण करते हैं। उसके महत्व को समझते है, वह अपने आगामी जीवन में एक सचेत और सभ्य समाज की स्थापना करता है। अत: संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि एक सभ्य और मानवीय समाज बनाने के लिए अनुशासन का महत्व अप्रतिम है और इस संदर्भ मे विद्यार्थी जीवन में अनुशासन की भूमिका सर्वोपरि मानी जा सकती है।

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