सिक्के की आत्मकथा पर निबंध Autobiography of a Coin in Hindi Essay
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Autobiography of a Coin in Hindi
Essay on Autobiography of a Coin in Hindi 600 Words
कपड़े बदलते हुए मेरी जेब से रुपये का सिक्का गिरा। वह पहिए की तरह चलता हुआ मेरे पैर के पास आकर ऐसे खड़ा हो गया मानो कोई सेवक स्वामी के पास आकर खड़ा होता है। सहसा महसूस हुआ कि वह कुछ कह रहा है कि मैं रुपया हूँ, दुनिया की सबसे बड़ी शक्ति हूँ। इस पर भी दुनिया वाले मुझे हाथ का मैल समझते हैं और जब मैं उनसे मुख मोड़ लेता हूँ, तो पीछे भागते हैं। भगवान् का द्वार खटखटाते हैं और पूजा-पाठ करवाते हैं।
बाबूजी, मैं भी पृथ्वी माता की सन्तान हूँ। वर्षों तक मैं उसकी गोद में सुख-चैन की नींद सोता रहा हूँ। आप की तरह मेरा भी परिवार था, सगे सम्बन्धी थे। एक दिन मज़दूरों और मशीनों की सहायता से मेरा घर खोदा जाने लगा। मेरे ही परिवार के लोगों को नहीं; अपित् मेरी समस्त जाति को बाहर निकाल-निकाल कर फेंका जाने लगा। कैदियों की तरह बन्द गाड़ियों में डाल कर एवं विशाल भवन के सामने लाया गया। अन्दर का दृश्य देखकर मेरा रोम-रोम काँप उठा। हमें कई प्रकार के रसायनों से साफ किया जाना था। सहना ही पड़ा उस पीड़ा को अपने भाइयों के साथ। हमारे इस नए रूप ने इस पीड़ा को भुला दिया। अपनी चमक-दमक से स्वयं ही मोहित हो उठे। लोग हमें चाँदी की मिट्टी के नाम से पुकार रहे थे। भाग्य में अभी और भी कष्ट लिखे थे; किन्तु अब पीड़ा को सहन करने की शक्ति आ चुकी थी, नए रूप के पाने की आशा से। हमें टकसाल में ले जाया गया। वहाँ पर मर्मान्तक पीड़ा सहन करने के बाद जो नया रूप हमें मिला, वह बड़ा ही आकर्षक था। चमकती हुई गोलाकार देह अपनी मुग्धकारी झंकार के साथ सबको मोहित कर लेने के लिए काफी थी। उसी समय से आप लोग हमें ‘रुपये’ के नाम से सम्बोधित करने लगे।
अपने इस नए परिवार में कुछ ही दिन रह पाया था कि एक दिन लोहे के बक्सों में बन्द करके बैंक लाया गया। वह बैंक था रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया। इस कैद में मेरा दम घुटने लगा। छुटकारा पाने के लिए मैंने भी इन्सान की तरह भगवान् को याद किया। उसने मेरी सुनी और एक दिन लोहे के बक्से का ताला खुला। हमें गिन-गिन कर बाहर निकाला जाने लगा। सौभाग्य से उसमें मेरा भी नम्बर आ गया। हमें अनेक व्यक्तियों के हाथ से होकर जिस व्यक्ति के हाथ में दिया गया, वह किसी स्कूल का चपरासी था। मैंने सोचा था कि कदाचित मेरा यह नया स्वामी बहुत ही उदार होगा और उससे मुझे बहुत प्यार मिलेगा। किन्तु एक दो दिन ही बीते थे कि उसके बेटे ने मुझे जेब से निकाल लिया और खुशी-खुशी चल दिया बाजार का ओर।
वह एक खोमचे वाले के पास खड़ा हो गया और मुझे उसकी ओर फेंकते हुए कहा ‘आठ आने का पत्ता बना।’ खोमचे वाले ने उलट-पुलट कर मुझे निहारा दो तीन बार चुटकी लगाई और फिर उसने नमक मिर्च के हाथ धोने से गंदे हुए एक जल के पात्र में डाल दिया। यह पीड़ा मेरे लिए असहय थी। पर विवश था। उसी संध्या को वह बनिए की दुकान पर बिल चुकाने गया। अब मैं बनिए की संदूकची में था। दो-तीन दिन की कैद के बाद मैं फिर अपने भाइयों के साथ बैंक भेज दिया गया। फिर पुरानी दशा में पहुँचा; किन्तु इस बार शीघ्र ही नया रूप पा लिया।