Essay on Guru Gobind Singh Ji in Hindi गुरु गोबिंद सिंह जी पर निबंध हिंदी में

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Essay on Guru Gobind Singh ji in Hindi 800 Words

गुरु गोबिंद सिंह जी पर निबंध

भूमिका

श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी सिक्ख धर्म के दशम गुरु थे। आपने धर्म और वीरता का आदर्श स्थापित किया है। वे बचपन से ही वीर, निडर, साहस और आत्म विश्वास से भरपूर थे।

जन्म और माता-पिता

उनका जन्म 22 दिसम्बर सन् 1666 ई. में पटना, बिहार में हुआ। आपके पिता जी का नाम गुरु तेग़ बहादुर और माता जी का नाम माता गुजरी था।

पटना में बचपन

आपका बचपन बड़े ही लाड-प्यार में बीता। आपने बचपन के पहले छह वर्ष पटना शहर में व्यतीत किये। 1671 ई. में गुरु गोबिन्द सिंह जी, उनके माता, दादी, मामा और सिक्ख लखनौर पहुँच गए जहाँ बालक गोबिन्द सिंह जी की दस्तारबन्दी की रस्म पूरी की गई।

शिक्षा

1672 ई. के शुरू में गुरु तेग़ बहादुर जी अपने परिवार के साथ चक्क नानकी आनंदपुर साहिब में रहने लगे। यहाँ गोबिन्द सिंह जी की शिक्षा का उचित प्रबन्ध किया गया। काजी पीर मुहम्मद उन्हें फ़ारसी पढ़ाते और पंडित हरजस उन्हें संस्कृत का ज्ञान देते। राजपूत बन्नर सिंह ने उन्हें घुड़सवारी और अस्त्र-शस्त्र चलाने की शिक्षा दी। गुरु जी हिन्दी, गुरुमुखी, संस्कृत और फ़ारसी के ज्ञाता बन गए।

गुरगद्दी की प्राप्ति और पिता की शहीदी

1675 ई.में कश्मीरी पंडितों का एक जत्था गुरु तेग़ बहादुर जी के पास पहुंचा। उन्होंने गुरु तेग बहादुर जी को कश्मीरी पंडितों पर हो रहे मुग़ल-अत्याचारों के बारे में बताया। उन्होंने यह सारी बात सुनी और गुरु जी ने कहा कि इसके लिए किसी महापुरुष के बलिदान की आवश्यकता है। यह बात सुनकर बालक गोबिन्द जी ने कहा कि “आपसे बढ़कर महापुरुष और कौन हो सकता है?” अपने पुत्र के मुँह से यह शब्द सुनकर गुरु तेग़ बहादुर जी ने बेटे को गुरगद्दी सौंप कर अपने साथियों के साथ दिल्ली बलिदान देने के लिए चल पड़े। जहाँ उन्हें और उनके साथियों को दिल्ली के चाँदनी चौंक में शहीद कर दिया गया।

श्री गोबिन्द जी 11 नवम्बर 1675 को गुरु पद पर बैठे। उन दिनों हिन्दू धर्म संकट में था पर गुरु गोबिन्द राय जी ने गद्दी पर बैठते ही धर्म की रक्षा का बीड़ा उठाया। औरंगजेब के अत्याचारों को चुनौती | देने के लिए गुरु परम्परा को बदल दिया।

गुरु जी के चार साहिबजादे थे।
(1) अजीत सिंह
(2) जुझार सिंह
(3) जोरावर सिंह
(4) फतेह सिंह

खालसा पंथ की स्थापना

गुरु जी ने 1699 ई. की वैसाखी के अवसर पर श्री आनंदपुर साहिब में पाँच प्यारों को अमृत छकाया और स्वयं भी उनसे अमृत ग्रहण किया। इन पाँच प्यारों में दया राम, धर्मराय, साहिब चन्द, मोहकम चन्द और हिम्मत राय शामिल थे। इन सबके नाम के साथ ‘सिंह’ शब्द और पाँच कक्कारों (कृपाण, कच्छा, कड़ा, केश, कंघा) को धारण करना आवश्यक कर दिया गया। गुरु जी ने स्वयं भी अमृत छककर गोबिन्द राय से गोबिन्द सिंह बन गए। उन्होंने कायरों को वीर, वीरों को सिंह बनाया।

साहित्य रचना

गुरु गोबिन्द सिंह जी ने सिक्खों को संस्कृत ग्रन्थों का ज्ञान कराने के लिए महाभारत, रामायण, उपनिषद, पुराणों आदि का भाषानुवाद कराया। वे स्वयं उच्चकोटि के कवि थे। उनके दरबार में 52 कवि रहते थे। जिन्होंने महान साहित्य रचा था। उन्होंने 1684 में ‘चण्डी की वार’ की रचना की।

चमकौर साहिब पर घेरा

5-6 दिसम्बर 1704 की रात में औरंगजेब की सेना ने लाहौर और सरहिंद के सूबेदारों और पहाडी राजाओं की सहायता से आनंदपुर को घेर लिया। मुट्ठी भर सिक्खी ने बड़ी वीरता से उनका सामना किया। चमकौर की गढी में एकएक सिक्ख सवा लाख दुश्मनों से लड़ा। गुरु जी सरसा नदी को पार कर गए पर इनके दो छोटे पुत्र और माता गुजरी इनसे बिछुड़ गए।

चारों पुत्रों का बलिदान

गुरु जी के दो पुत्र अजीत सिंह और जुझार सिंह युद्ध में शहीद हो गए। गुरु जी के दोनों छोटे पुत्र जोरावर सिंह, फतेह सिंह तथा माता गुजरी रसोइये गँगू के साथ उसके गाँव चले गए। धन के लोभ में आकर गँगू ने दोनों बच्चों को सरहिंद के नवाब वजीर खाँ को सौंप दिए। उसने उन्हें मुसलमान बनने के लिए कहा। साहिबजादों के इन्कार करने पर उन्हें दीवार में चिनवा दिया। गुरु गोबिन्द सिंह जी जीवन भर मुग़ल सेना से लड़ने एवं धर्म की रक्षा करने के लिए सर्वस्वदानी कहलाए। |

जफरनामा लिखना

गुरू जी ने फ़ारसी में औरंगजेब को एक पत्र लिखा जिसे “ज़फरनामा” कहते हैं। इसमें औरंगजेब को उसके अत्याचारों के लिए फटकारा गया था। जफरनामे को पढ़कर औरंगजेब उसके प्रभाव से अपना मानसिक सन्तुलन खो बैठा।

उपसंहार

श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी ने गुरुप्रथा बंद कर गुरु का स्थान श्री गुरु ग्रंथ साहिब को दे दिया। गुरु जी की सेना में दो पठान थे। एक रात नांदेड़ में सोते समय उन्होंने गुरु जी के पेट में छुरा घोंप दिया। जिससे काफ़ी गहरा घाव हो गया। अभी घाव पूरी तरह भरा भी न था कि अचानक एक दिन बहादुरशाह ने उनके पास चिल्ला चढ़ाने के लिए दो धनुष भेजे। चिल्ला चढ़ाते समय उनके घाव के टॉके टूट गए। गुरु जी 7 अक्तूबर 1708 ई. को ज्योति-जोत समा गये।

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Essay on Guru Gobind Singh ji in Hindi 1000 Words

दशमेश पिता – गुरु गोबिंद सिंह जी पर निबंध

भूमिका

भारतीय इतिहास के पृष्ठों के दशमेश गुरु गोबिन्द सिंह जी का नाम अमिट है। उनका जन्म गीता के उस कथन का समर्थन करता है जिसके अनुसार जब-जब संसार में अत्याचार और अन्याय बढ़ जाता है, पाप प्रधान हो जाता है, तो ईश्वर या उसका अंश किसी महापुरुष के रूप में अवतरित होकर मुक्ति दिलाता है। देश, धर्म और मानवता के लिए आजीवन संघर्ष करने वाले गुरु गोबिन्द सिंह इसी प्रकार अवतरित पुरुष थे। सभी प्रकार के भेद भावों से परे, सन्त, सिपाही गुरु गोबिन्द सिंह सिख धर्म के लिए नहीं अपितु अखिल मानवता के लिए ज्योति पूँज थे। उनके व्यक्तित्व के सम्बन्ध में कबीर का यह कथन सत्य प्रतीत होता है –

सूरा सोई सराहिए, जो लड़े दीन के हेत,
पुरजा-पुरजा कट मरे, कबहुँ नछी खेत।

जीवन परिचय –

जन्म
श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी का जन्म 26 दिसम्बर 1666 को बिहार की राजधानी पटना में हुआ –

तही प्रकाश, हमारा भयो,
पटने शहर में भव लयो।

उनके पिता का नाम श्री गुरु तेग बहादुर और माता का नाम गुजरी था। उसका बचपन का नाम गोबिन्द राय था।

बाल्यकाल
गुरु गोबिन्द सिंह जी पटना में 5 वर्ष की अवस्था तक रहे। उसके बाद अपने पिता के द्वारा बसाए नगर आनन्दपुर में रहने लगे।

शिक्षा-दीक्षा
बालक गोबिन्द राय के व्यक्तित्व के पूर्ण विकास के लिए पिता द्वारा शिक्षा की समुचित व्यवस्था की। उन्हें पंजाबी, फारसी तथा संस्कृत की शिक्षा देने के लिए अलग-अलग शिक्षक नियुक्त किए गए। सैनिक शिक्षा देने के लिए राजपूत सैनिक बाज सिंह को नियुक्त किया गया।आनन्दपुर साहिब में रहकर उन्होने लगभग 18 वर्ष तक शस्त्र और शास्त्र की शिक्षा द्वारा अपना शारीरिक और मानसिक विकास किया।

उनके बाल्यकाल की प्रमुख घटनाएं उनके महान् भविष्य की ओर संकेत करती हैं। नवाब की सवारी के सामने न झुकना उनकी निर्भीकता का प्रमाण है। दूसरी प्रमुख घटना उस समय की है जब मुगलों के दमन चक्र से भयभीत होकर कुछ कश्मीरी पण्डित उनके पिता से सहायता मांगने के लिए आए थे। पिता को चिन्तित मुद्रा में देखकर बालक ने उन्हें कर्तव्य-बोध कराया कि उनसे बढ़ कर कौन महापुरुष हो सकता है। पुत्र का यह उत्तर सुन कर पिता फूले न समाये। जब बालक गोबिन्द राय केवल 9 वर्ष के थे तो चांदनी चौंक दिल्ली में उनके पिता का सिर त्याग की बलिवेदी पर समर्पित हुआ।

जीवन की प्रमुख घटनाएं

उन्होंने पिता की मौत का बदला लेने की सोची लेकिन कुछ सरदारों के कहने पर उन्होंने यह विचार त्याग दिया तथा आत्म शक्ति प्राप्त करने के लिए ध्यानावस्था में रहने लगे। लेकिन उपासना को ही उन्होंने जीवन लक्ष्य नहीं बनाया अपितु धर्म-ध्वजा के लिए निरन्तर संघर्ष करने लगे। पहाड़ी राजाओं के आक्रमणों का सामना पाउन्टा के स्थान के निकट किया तथा विजयी हुए।

मुगल सेना के साथ सन् 1704 ई. में आनन्दपुर में युद्ध हुआ जो बहुत लम्बे समय तक चला और किले में खाद्य-सामग्री का अभाव होने पर भी गुरु जी और उनके वीर सिपाही डटे रहे। कुछ सिखों ने उनका परित्याग भी कर दिया लेकिन बाद में वे अपना बलिदान देकर चालीस मुक्ते कहलाये। आनन्दपुर का किला छोड़ने पर चमकौर गढ़ी में फिर से मुगल सेना का सामना हुआ और गुरु जी को अपने साहिबज़ादे खोने पड़े। उनके दो छोटे साहिबजादे सरहिन्द के मुगल नवाब ने दीवार में चुनवा दिए। परन्तु वह अपने महान् उद्देश्य से जरा भी विचलित न हुए। दक्षिण पंजाब में भ्रमण करते हुए वे नाभा, कोटकपूरा, मुक्तसर, जैजों तथा नांदेड़ आदि स्थानों पर घूमते रहे।

अपने शिष्यों को संगठित करने के लिए उन्होंने सन् 1699 के वैशाखी के दिन खालसा पंथ की सृजना की। इसका उद्देश्य जाति प्रथा के भेदभाव को मिटाना तथा धर्म को नई दिशा प्रदान करना था।

सरहिन्द के नवाब ने गुरु जी के प्राण लेने के लिए अपने दो विश्वसनीय व्यक्ति नियुक्त किए थे। एक बार जब गुरु जी अपने आश्रम में लेटे थे तो उन व्यक्तियों ने गुरु जी के पेट में छुरा घोप दिया। अपनी कृपाण से गुरु जी ने एक को वहीं ढेर कर दिया। उनका घाव भर तो गया पर कुछ समय बाद धनुष पर चिल्ला चढ़ाते समय उनका घाव फट गया और वे परम धाम को चल बसे।

बहुमुखी व्यक्तित्व

गुरु गोबिन्द सिंह ने अपने बहुमुखी व्यक्तित्व से अपने युग को नई दिशा प्रदान की। श्री गुरु गोबिन्द सिंह निष्ठावान, धर्म प्रर्वत्तक, सशक्त समाज सुधारक, क्रांतिकारी, लोक नायक, साहसी योद्धा और आशावादी राष्ट्र नायक थे। सेवा त्याग सदाचार के द्वारा सत्य की उपलब्धि को जीवन का चरम लक्ष्य मानने वाले सिखों में उन्होंने वीर भावना का संचार किया तथा स्वयं अन्याय और अत्याचारों के विरुद्ध युद्ध करते रहे – उनकी कामना थी….

देहि शिवा वर मोहि इहै, शुभ कर्मन ते कबहु न टरौं।
न इरौ अरि सौ, जब जाय तरी निसचै करि अपनी जीत करो।
अरू सिखहौ अपने ही मन को यह लालच हो मुख तौं उचरौ।
जब आव की औघ निदान बनै अति ही रणमें तब जूझ मरौं।

उनके व्यक्तित्व का एक भव्य पक्ष उनका कवि रूप भी है। उनका शरीर पर्वत के कठोर था। परन्तु उनके हृदय में दया का झरना भी बहता था। अपने दरबार में उन्होने अनेक कवियों को सम्मानित किया तथा भारतीय संस्कृति से सम्बन्धित अनेक ग्रन्थों की रचना धी करवाई। उन्होने स्वयं भी काव्य की रचना की और उनका काव्य दशम ग्रंथ के नाम से प्रसिद्ध है, जिसमें जाप साहिब, अकाल स्तुति, विचित्र नाटक, चौबीस अवतार, चंडी चरित्र, चंदी वार शस्त्रनामाल आदि रचनाएं संकलित हैं।

संसारिक लोभ और मोह से गुरु गोबिन्द सिंह अलग थे। उन्होने पंथ को सुदृढ़ ही नहीं किया अपितु गुरुमता भी दी। उनकी गुरुमता के दो प्रसंग अत्यन्त प्रसिद्ध हैं। जब कन्हैया ने आनन्दपुर के युद्ध में घायल सिखों के अतिरिक्त शत्रुओं के सैनिकों को भी पानी पिलाया तो गुरुजी ने उसे अपना सच्चा शिष्य मानकर गले लगा लिया। और इसी प्रकार जब उनके पुत्रों को क्रूरता से मौत की गहरी नींद में सुला दिया गया तो उन्होंने शान्त होकर कहा….
इन पुत्रन के सीस पर, वार दिए सुत चार,
चार मुए तो क्या हुआ, जब जीवित कई हज़ार,

उपसंहार

समस्त मानव जाति के प्रति उनमें अपार प्रेम था। लंगर प्रथा का सूत्रपात कर उन्होंने सामाजिक विषमता को मिटाने का प्रयास किया। वे एक गत्यात्मक समाज की स्थापना करना चाहते थे। उनकी अरदास में लोक-मंगल की कामना थी। वे सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक किसी भी प्रकार के शोषण और अत्याचार के प्रबल-विरोधी थे। उनका उपदेश, धर्म यही था कि समस्त मानव जाति एक है।
मानुस की जाति सधै एकै पहिचानवो,
दूसरो न भेद कोई भ्रम मानवो।

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