Sanch Barabar Tap Nahi Essay in Hindi साँच बराबर तप नहीं का अर्थ

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Sanch Barabar Tap Nahi Essay in Hindi

Sanch Barabar Tap Nahi – साँच बराबर तप नहीं

साँच बराबर तप नहीं का अर्थ Sanch Barabar Tap Nahi Essay in Hindi 800 Words

सन्त कबीर द्वारा रचे गए इस दोहे का पूर्ण रूप इस प्रकार है :
“साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।
जाके हिरदय साँच है, ताके हिरदय आप।।”

इस सूक्तिपरक दोहे का सीधा और सरल अर्थ इस प्रकार किया जा सकता है कि इस नाशवान और तरह-तरह की बुराइयों से भरे संसार में सच बोलना सब से बड़ी और सहज-सरल तपस्या हैं। सत्य बोलने, सच्चा व्यवहार करने और सत्य मार्ग पर चलने से बढ़ कर और कोई तपस्या है, न हो ही सकती है। इसके विपरीत जिसे पाप कहा जाता है या जो अनेक प्रकार के पाप-कर्म माने गए हैं; बात-बात पर झूठ बोलते रहना; छल-कपट और झूठ से भरा व्यवहार तथा आचरण करना उन सभी से बड़ा पाप है। जिस किसी व्यक्ति के हृदय में सत्य का वास होता है अर्थात् जिस का आचरण एवं व्यवहार सब तरह से सत्य पर ही आधारित रहा करता है, ईश्वर स्वयं उसके हृदय में निवास किया करते हैं। अर्थात् सत्य व्यवहार करने वाले व्यक्ति पर सब तरह से ईश्वर की दयादष्टि एवं कृपा बनी रहा करती है। इस का यह अर्थ एवं व्यंजना मलक भाव लिया जा सकता है कि ईश्वर की कृपा से सच्चा व्यक्ति जीवन में सभी प्रकार की चिन्ताओं से मक्त होकर हर सख का अधिकारी बन जाया करता है। जीवन के व्यावहारिक सख भोगने के बाद अन्त में वह आवागमन के चक्कर से छुटकारा भी पा लेता है। इसके विपरीत मिथ्याचरण-व्यवहार करने वाला, हर बात में झूठ का सहारा लेने वाला व्यक्ति न तो चिन्ताओं से छुटकारा प्राप्त कर पाता है, न प्रभु की कृपा का अधिकारी ही बना करता है। उसका लोक तो बिगड़ता ही है, वह परलोक-सुख एवं मुक्ति के अधिकार से भी वंचित हो जाया करता है।

सत्य-व्यवहार एवं वचन को आखिर तप क्यों कहा गया है? प्रश्न का सहज-सरल उत्तर यह है कि संसार में प्रेम और सत्य मार्ग पर चल पाना खाण्डे की धार पर चल पाने के समान कठिन हुआ करता है। सत्य के साधक और व्यवहारक के सामने हर कदम पर अनेकविध कठिनाइयाँ आया करती हैं। उसे कदम-कदम पर विरोधों, विघ्न-बाधाओं और कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। उसके अपने भी उस सब से घबरा कर साथ छोड़ सकते क्या, अक्सर छोड दिया करते हैं। सब तरह के दबाव और कष्ट झेलते हुए सत्य के शोधक और उपासक को अपनी राह पर एक अकेले ही चलना पड़ता है। जो सत्याराधक इन सब की परवाह न करते हए भी अपनी राह पर दृढ़ता से स्थिर-अटल रह निरन्तर बढ़ता रहता है, उसका कार्य किसी भी तरह तप करने से कम महत्त्वपूर्ण नहीं रेखांकित किया जा सकता। इन्हीं सब तथ्या के आलोक में सत्य के परम आराधक कवि ने अपने व्यापक एवं प्रत्यक्ष अनभव के आधार पर सत्य को सब से बड़ा तप उचित ही कहा है।

इसके बाद अनुभव-सिद्ध आधार पर ही कवि सूक्ति के दूसरे पक्ष पर आता है। दूसरे पक्ष में उसने ‘झूठ बराबर पाप’ कह कर झूठ बोलने या मिथ्या व्यवहार करने को संसार का सब से बड़ा पाप कहा हैं। गम्भीरता से विचार करने पर हम पाते हैं कि कथन में वजन तो है ही, जीवन-समाज का बहुत बड़ा यथार्थ भी अन्तर्हित है। यदि व्यक्ति अपनी कमी या बुराई को छिपाता नहीं; बल्कि स्वीकार कर लेता है, तो उसमें सुधार की प्रत्येक संभावना बनी रहती है। लेकिन मानव अपने स्वभाव में बड़ा ही कमजोर और डरपोक हआ करता है। वह सच्चाई, कमी या बुराई को छिपाने के लिए अक्सर झठ का सहारा लिया करता है। बस, जब एक बार झूठ बोल दिया, तो फिर उस एक झठ को छिपाने के लिए उसे एक-के बाद-एक लगातार झूठ की राह पर बढ़ते-जाने के लिए विवश होते जाना पड़ता है। फिर किसी भी तरह झूठा और झूठे व्यवहारों से पिण्ड छुड़ा पाना प्रायः असम्भव हो जाया करता है। जीवन जीते-जी नरक बन जाया करता है। आदमी सभी की घणा का पात्र बन कर रह जाता है। जीवन एक तरह का बोझ साबित होने लगता है। इन्हीं सब व्यवहारमलक तथ्यों के आलोक में सत्य के शोधक सन्त कवि ने झूठ को सब से बड़ा पाप उचित ही ठहराया है।

इस विवेचन-विश्लेषण से यह भी स्पष्ट संकेत मिलता है कि आदमी का हर तरह का व्यवहार हमेशा सत्यमय एवं सत्य पर आधारित रहना चाहिए। झूठ का सहारा कभी भूल कर भी नहीं लेना चाहिए। गलती हो जाने पर भी यदि व्यक्ति सब-कुछ सच-सच प्रकट कर देता है, तो उसके सुधार की प्रत्येक सम्भावना उसी प्रकार बनी रह सकती है कि जिस तरह डॉक्टर के समक्ष रोग प्रकट हो जाने पर उसका इलाज संभव हो जाया करता है। यदि रोग प्रकट नहीं होगा, तो भीतर-ही-भीतर व्यक्ति के शरीर को सड़ा-गला कर नष्ट कर देगा। उसी प्रकार यदि झूठ का सहारा लेकर बुराई को छिपाया जाएगा, तो जीवन फिर असत्य व्यवहारों का पुलिन्दा बन कर रह जाएगा। बराड़यों का परिहार कभी भी कतई संभव नहीं हो पाएगा। इसलिए जीवन को झूठ के सहारे पाप का जीवन्त नरक नहीं बनने दीजिए। सत्य के तप से तपा कर कुन्दन और लोक-परलोक का स्वर्ग बनाइये। इसीलिए ही तो मनुष्य शरीर मिला है। इसकी सफलतासार्थकता भी इसी तथ्य में है।

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