Essay on Ritikal Ki Pravritiyan Visheshtayen in Hindi रीतिकाल की प्रवृत्तियाँ विशेषताएँ पर निबंध

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Essay on Ritikal Ki Pravritiyan Visheshtayen in Hindi

रीतिकाल की प्रवृत्तियाँ विशेषताएँ पर निबंध

हिन्दी साहित्य के जगत में भक्तिकाल के बाद सम्वत् 1700 वि. से जिस नये युग का प्रारंभ हुआ, काव्य-रचना की नई रीति अपनाने के कारण उसे रीतिकाल कहा जाता है। मुगल बादशाह शाहजहाँ के शासन काल से लेकर यह युग सम्वत् 1900 वि. (लगभग सन् 1857 ई.) तक चलता रहा। इस काल-खण्ड में ऊपरी तौर पर स्थायित्व और शांति रही। राजनेताओं, राजदरबारों और सामन्तों-जागीरदारों के पास करने के लिए कोई विशेष काम नहीं होता था। इस कारण सभी सक्षम लोग उनके राजदरबार और घर-परिवार आदि सभी राग-रंग, नृत्य-गायन और विलासिता के अड़े बनकर रह गए थे। कविता और कवि ही नहीं, सभी प्रकार की कलाएँ और कलाकार भी रोजी-रोटी के लिए राजाओं पर आश्रित हो गये थे। कवियों-साहित्यकारों की वाणी को भी आश्रयदाताओं की मनोवृत्ति और संकेत के अनुसार नाचना पड़ता था। परिणाम स्वरूप, केवियों का तत्कालीन साहित्य समाज की चिन्ता भूलकर मात्र आश्रयदाताओं को खुश करने को अपना लक्ष्य बना बैठा तत्कालीन कवि राजदरबारों में अपनी रचनायें सुनाकर बदले में अशर्फियाँ आदि हाशिल करते । इसी वज़ह से अपने हिन्दी साहित्य के विवेचनात्मक इतिहास में डॉ। तिलकराज शर्मा ने इस युग को ‘अशर्फीवादी युग’ भी कहा है।

श्रृंगार काव्य, वह भी मुक्तक-काव्य रचकर राजदरबार अथवा आश्रयदाता को सुनाना इस काल की मुख्य प्रवृत्ति रही है। श्रृंगार के अंतर्गत कवियों ने नख-शिख-वर्णन, नायिका-भेद, अलंकारिक चित्रण भी बहुत किया। इसे हम इस काल के साहित्य की एक प्रमुख विशिष्टता भी कह सकते हैं। श्रृंगार-वर्णन में अश्लीलता और स्वच्छता चाहे नहीं आ पाई; पर स्वच्छन्द उन्मुक्तता और सघन रसिकता जरूर है। श्रृंगार के संयोग और विप्रल-भ (वियोग) दोनों पक्षों का भरपूर चित्रण हुआ है। कवियों का कविता को अलंकृत करने का रूझान तो-रहा ही, अलंकारों के वर्णन कर स्पष्ट प्रतिष्ठा भी इस काल की एक विशेष प्रवृत्ति दिखाई देती है। इस कारण कविता में चमत्कारपूर्ण उक्तियों का समावेश तो संभव हो ही सका, हर तरह के अलंकारों के सैंकड़ों अच्छे उदाहरण भी प्रस्तुत हो सके। निश्चय ही इसे रीतिकाल की एक प्रमुख उपलब्धि के रूप रेखांकित किया जा सकता है, हाँ कविता में अलंकारों का अत्यधिक प्रयोग काव्य-सौन्दर्य की दृष्टि से घातक सिद्ध हुआ।

कृष्ण-भक्ति की परंपरागत प्रवृत्ति भी रीतिकाल में अपनी विकृतावस्था में दृष्टिगोचर होती है। हाँ, भक्ति भावना के किसी सांप्रदायिक स्वरूप के दर्शन यहाँ नहीं होते। दूसरे, राधाकृष्ण के नाम और भक्ति को कवियों ने ज्यादातर श्रृंगार-वर्णनों, आश्रयदाताओं के प्रेम-वर्णनों का आश्रय भी बनाए रखा। कहीं-कहीं विशुद्ध भक्ति-भाव के भी दर्शन हो जाते हैं। भक्ति-भावना कवियों की मानसिक शरणस्थली भी रही। इसी तरह राजदरबारी श्रृंगारी वातावरण से ऊबे कवि कई बार कुछ व्यावहारिक नीतियों संबंधी उक्तियाँ भी कहते रहे। उनके उस युग के अनुभूत तथ्यों के न्यूनाधिक दर्शन अवश्य हो जाते हैं।

इस काल की एक महत्त्वपूर्ण प्रवृत्ति और विशेषता रीति ग्रंथ-रचना मानी गई है। ज्यादातर कवि अपनी कवित्व-प्रतिभा के साथ-साथ पाण्डित्य-प्रदर्शन के लिए रीति या फिर काव्यशास्त्र के लक्षण बताने वाले ग्रंथ भी रचते रहे। इस दृष्टि से रीति-ग्रंथ रचने वाले कवि रीतिबद्ध कवि, रीति-ग्रंथ न रच केवल शास्त्रीय लक्षणों के अनुसार काव्य रचने वाले कवि रीतिसिद्ध कवि, रीतिग्रंथों और लक्षणों की परवाह न कर स्वच्छंद श्रृंगार-रस प्रधान करने वाले कवि रीतियुक्त कवि – ये तीन तरह के कवि इस युग में हुए। इसके साथ भूषण जैसे कुछ कवि, रीतिबद्ध काव्य धारा के अंतर्गत श्रृंगार-रस का परित्याग कर वीररस-प्रधान काव्य रचकर राष्ट्रीय काव्यधारा के विकास में भी अपना महत्वपूर्ण योगदान प्रदान करते रहे। इस तरह की रचनाओं को ही रीतिकाल का शुभ लक्षण और महत्वपूर्ण देन कहा जा सकता है।

जहाँ तक प्रकृति-चित्रण का सवाल है, रीतिकाल में उसका चित्रण मुख्य रूप से आलंबन रूप में ही संभव हो पाया है, स्वतंत्र अथवा स्वच्छंद वर्णन नहीं। वैसे चित्रण कर पाना शायद युगकवियों के लिए संभव ही नहीं था। प्रमुखतया कविता ब्रजभाषा में ही रची गई । उस पर स्थानीय बोलियों का प्रभाव तो पड़ा ही, दरबारी वातावरण के कारण अरबी-फारसी आदि का प्रभाव भी स्पष्ट होता है। शैली भी मुक्त रही। कवित्त, दोहा और सवैया को ही अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया गया। अलंकारों का प्रयोग भरपूर हुआ, यह पहले भी स्पष्ट किया गया है।

उपर्युक्त प्रवृत्तियों के उपरांत सखेद स्वीकार करना पड़ता है कि रीतिकाल के काव्य में लोक जीवन की कमी खटकने वाली सीमा तक है। यदि कहीं कुछ संकेत मिलता भी है तो मात्र मजाक उड़ाने के लिए। लेकिन संभ्रांत वर्ग की संस्कृति और चेतना का भरपूर वर्णन और रसिकता की भावना के विस्तृत दर्शन जरूर किये जा सकते हैं। इन तथ्यों के प्रकाश में कहा जा सकता है कि रीतिकाल केवल विशुद्ध काव्य ही है। उसका व्यावहारिक, उपयोगितावादी पहलू प्रायः नगण्य-सा ही है।

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