Essay on Experimentalism in Hindi प्रयोगवाद पर निबंध

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Essay on Experimentalism in Hindi

hindiinhindi Essay on Experimentalism in Hindi

Essay on Experimentalism in Hindi 400 Words

प्रयोगवाद और नई कविता

सन् 1942-43 के आस-पास से एक नयी और भिन्न प्रकार की रचनाशीलता साहित्यक्षेत्र में जन्म लेती हुई दिखाई पड़ने लगती है। इसके संकेत हमें तारसप्तक के प्रकाशन के तुरंत बाद से ही दिखलायी पड़ने लगते हैं। मुक्तिबोध, अज्ञेय और प्रभाकर माचवे इस नयी रचनाशीलता के प्रारम्भिक रचनाकारों में से थे। डॉ। विजय नारायण सिंह ने इसी ओर संकेत करते हुए लिखा है- “हिंदी में प्रयोगवाद शब्द उस कविता के लिए प्रचलित है, जो सन 1940 के बाद छायावादी रूढ़ियों की प्रतिक्रिया में विकसित हुई। प्रयोगवादी काव्य का प्रथम संग्रह ‘तारसप्तक’ के रूप में सन् 1943 में प्रकाशित हुआ। इस संग्रह में सात कवियों की कविताएं संकलित थीं और संग्रह के संपादक अज्ञेय जी थे। सप्त कवियों में मुक्तिबोध, नेचिंद्र जैन, भारतभूषण अग्रवाल, प्रभाकर माचवे, गिरिजा कुमार माथुर, रामविलास शर्मा और अज्ञेय थे। अज्ञेय जी ने इस संग्रह के संपादकीय में लिखा था: “संगृहीत कवि सभी ऐसे होंगे, जो कविता को प्रयोग का विषय मानते हैं। जो यह दावा नहीं करते कि काव्य का सत्य उन्होंने पा लिया है, जो स्वयं को केवल अन्वेषी ही मानते हैं। किसी मंजिल पर पहुंचे हुए नहीं हैं, अभी राही ही हैं, राही नहीं, राहों के अन्वेषी।”

वस्तुत: इसी संपादकीय टिप्पणी को ‘प्रयोगवाद’ का आरम्भ माना जाता है। प्रयोगवाद की एक अनिवार्य विशेषता है पुरानी और पारंपरिक मान्यताओं का विरोध। अज्ञेय जी की एक कविता इसे स्पष्ट रूप से प्रकट करती है:

गा गया सब राजकवित, फिर राजपथ सो गया।
गा गया फिर भक्त, ढुल-मुल चाटुता से वासन को झलमलाकर
गा गया चारण, शरण फिर शूर की आदर निरापद सो गया।
गा गया अंतिम प्रहर में वेदना प्रिय अलस तंद्रिल
कामना का लाडला
कविनिष्ठ भावावेश से निर्वेद।

समूची काव्य परंपरा का इतना सुन्दर रेखांकन इससे पूर्व प्राय: देखने को नहीं मिलता। प्रयोगवादी कवियों ने भावुकता और कल्पनाशीलता के स्थान पर ठोस और वास्तविक यथार्थ के रेखांकन को महत्वपूर्ण माना। इन्होंने तयुगीन मानव समाज में उभर आयी तमाम विकृतियों का साहस के साथ चित्रण किया और दु:खों के प्रति प्रचलित दृष्टिकोण को बदलकर उसे एक नयी दार्शनिक भंगिमा प्रदान की। यथाः

दु:ख सबको भांजता है।
और
चाहे स्वयं सब को मुक्ति देना वह न जाने किंतु
जिनको भांजता है।
उन्हें यह सीख देता है कि सबको मुक्त रखो।

वस्तुत: प्रयोगवादी साहित्य का महत्व अविस्मरणीय है। उसने साहित्य को दार्शनिकता का ठोस आधार प्रदान किया। इस संदर्भ में प्रयोगवाद का ऐतिहासिक महत्व है।

Essay on Experimentalism in Hindi 750 Words

प्रयोगवादी साहित्य धारा

डा. नगेन्द्र ने लिखा है कि: ‘‘हिन्दी साहित्य के इतिहास में प्रयोग तो प्रत्येक युग में होते आए हैं। किन्तु ‘प्रयोगवाद’ उन कविताओं के लिए रूढ़ हो गया है जो कुछ नये बोधों, संवेदनाओं तथा उन्हें प्रेषित करने वाले शिल्पगत चमत्कारों को लेकर शुरू-शुरू में ‘तार संसक’ के माध्यम से सन् 1943 में प्रकाशन-जगत में आयीं। जो प्रगतिशील कविताओं के साथ विकसित होती गयीं तथा जिनका मिश्रण नयी कविताओं में हो गया है, उन कविताओं के लिए प्रयोगवाद नाम भ्रामक है; क्योंकि उन कविताओं से यह भाव टपकता है कि इन कवियों ने प्रयोग को एक साधन मान कर एक नया वाद चला दिया। अज्ञेय जी ने दूसरा-सप्तक की भूमिका में कवि-कर्म की व्याख्या करते हुए प्रयोग शब्द को स्पष्ट किया था। उनकी दृष्टि में प्रयोग अपने आप में इष्ट नहीं है, वरन वह साधन है। दोहरा साधन है। एक तो वह उस सत्य को जानने का साधन है, जिसे कवि प्रेषित करता है। दूसरे, वह उस प्रेषण क्रिया को और उसके साधनों को जानने का भी साधन है।

वस्तुत: प्रयोगवादी साहित्य-धारा का आरम्भिक संकेत सन् 1942 के आस-पास से ही मिलने शुरु आरम्भ हो गये थे। तार सप्तक ने तो मानों इसे साहित्य में प्रतिष्ठित ही कर दिया। इस अवधारणा को साहित्य में प्रस्तुत करने का श्रेय अज्ञेय को दिया जाना चाहिए। हांलाकि इस काव्य धारा को ‘प्रयोगवाद’ कहकर संबोधित किया जाना स्वयं अज्ञेय को भी पसंद नहीं था। जिस नयी काव्यानुभुति को, जिसे इस दौर में तथाकथित प्रयोगवाद कह कर संबोधित किया गया, वह एक नयी ऐतिहासिक-अनिवार्यता और गहरे इतिहास-बोध की आवश्यकता थी। इस अनिवार्यता को समझने के लिए हमें निराला की ‘राम की शक्ति-पूजा’ नामक कविता का स्मरण करना पड़ेगा। उस कविता में स्पष्ट रूप से इस बात पर बल दिया गया है कि प्रचलित मिथक और शक्ति-प्रतीक आज पहले जैसे नहीं रह गये हैं, वे परिवर्तित हो गये हैं। सिर्फ ऐसा ही नहीं है कि वे शक्ति-संस्थान परिवर्तित मात्र हो गये हैं अपितु समसामयिक स्थितियों में वे असामाजिक और शोषक वर्गों के साथ संबंद्ध भी हो गये हैं। ऐसे में जब वर्तमान समाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक आदि सभी स्थितियां और परिस्थितियां पूर्णतः परिवर्तित हो चुकी हैं, यह सोचना गलत ही होगा कि प्राचीन मिथकों, शब्दों आदि से हम इन नवीन स्थितियों और परिस्थितियों को सहज ही समझ लेगें। इन नयी स्थितियों को समझने के लिए आज हमें नये सिरे से तैयारियाँ और अनेकानेक प्रकार के प्रयोग करने पड़ेंगे। अज्ञेय का तो स्पष्ट मानना था कि ‘प्रयोग’ हमारे वर्तमान की अनिवार्यता ही है।

अज्ञेय ने अनुभव की प्रामणिकता और वैयक्तिकता को जोरदार ढंग से उठाया। उन्होंने इस प्रकार से साहित्य के ढोंगी आवरण को उतार कर फेंकने की महान चेष्टा की। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि हमें वही लिखना चाहिए, जो हम भोगते हैं। अर्थात् काव्य को कल्पना की अपेक्षा अपने यथार्थपूर्ण सुख-दु:ख की स्थितियों से जोड़ना चाहिए। हमें साहित्य में वही लिखना चाहिए, जिसे हम अपने दैनिक जीवन में भोगते हैं। डॉ. नगेन्द्र ने इसे रेखांकित करते हुए लिखा है: “अत: प्रश्न यह उठाया गया कि क्यों न हम उसी यथार्थ को अभिव्यक्ति दें जिसे ‘हम भोगते हैं, अनुभव करते हैं। अर्थात जिसे हम आत्मसात् कर लेते हैं। व्यापक जीवन की बड़ी-बड़ी सैद्धांतिक बातें और नैतिकता के बडे-बडे फलसफे, ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में भले ही उपादेय हों, वे कला के क्षेत्र में कलाकार के ‘स्व’ की आंच में तपे बिना न तो खप सकते हैं और न उपादेय ही हैं। प्र्शन यह नहीं कि हमने कला के जीवन के कितने व्यापक अंश को समेटा है, प्रशन यह है कि हमने लिये हुए अंश को कितना जिया है? कितना भोगा है? और कितनी ईममानदारी और सच्चाई के साथ व्यक्त किया है? प्रयोगवादी कवि इसीलिए व्यापक जन-जीवन के आंगन के फेर में न पड़कर अपने जिये हुए जीवन के ही विभिन्न दर्दो को अंकित करना पसंद करते हैं।”

प्रयोगवाद ने इस प्रकार की कविता का प्रायः खण्डन ही किया, जो साहित्य को कला न रखकर शुद्ध नारों में परिवर्तित कर देना चाहती थी। कविता जीवन को ग्रहण अवश्य करती है, किन्तु इस बात को भूलना नहीं चाहिए कि कविता भाषा को आधार बनाती है, और भाषा के रूप में बदलने वाली वस्तु स्वयं की कतिपय कठोरताओं और स्थूलताओं को बाहर छोड़कर ही कविता में शामिल होती है। प्रयोगवादी कवियों का इस प्रकार का दृष्टिकोण वास्तव में साहित्य को एक गंभीर और व्यापक स्वरूप प्रदान करता है।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि सन् 1942 के आस-पास आरम्भ होने वाली नयी रचनाधर्मिता कई रूपों में भारतीय समाज की अनिवार्यता थी।

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