Meera Bai in Hindi मीराबाई

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Essay on Meera Bai in Hindi 300 Words

हमारे देश में कृष्ण भगवान् के भक्तों की बड़ी संख्या है, लेकिन मीराबाई को ही उनका आज तक का सबसे बड़ा भक्त माना जाता है। इसकी वजह यह है कि उन्होंने अपना पूरा जीवन ही कृष्ण भगवान् की भक्ति के नाम कर दिया। मीराबाई कृष्णभक्ति शाखा की महान् कवयित्री थीं।
उनका जन्म सन् 1498 में जोधपुर के चोकड़ी गाँव में हुआ था। उनके पिता का नाम रत्नसिंह था। बचपन से ही मीराबाई को कृष्ण भगवान् की ओर खिंचाव महसूस होता था। शादी के लायक होने पर उनका विवाह उदयपुर के महाराणा कुमार भोजराज जी के साथ कर दिया गया। वे महाराणा साँगा के पुत्र थे।

विवाह के कुछ समय बाद उनके पति की मृत्यु हो गई। इसके बाद उनका संसार से लगाव खत्म हो गया और वे साधु-संतों के साथ कृष्ण भगवान् के गीत गाते हुए समय काटने लगीं। उनके देवर राणाजी को यह बिलकुल अच्छा नहीं लगता था। सभी ने मीरा को रोकने की बहुत कोशिश की, लेकिन वे दीन-दुनिया भूल हरिभजन में ही डूबी रहती थीं। यहाँ तक कि राणाजी ने कई बार मीराबाई को मारने तक की कोशिश की, लेकिन हर बार भगवान् की कृपा से वे बाल-बाल बच गईं।

अब मीरा का महल में जरा भी मन नहीं लगता था। उन्होंने घर छोड़ दिया और तीर्थ यात्रा के लिए निकल गईं। वे जहाँ भी जातीं, लोग उन्हें देवी जैसा सम्मान देते। कई दिनों तक वृंदावन में रहने के बाद वे द्वारिका चली गईं। यहाँ सन् 1546 में उनकी मृत्यु हो गई। मीराबाई ने कृष्ण भगवान् की प्रशंसा में कई पद रचे । उन्होंने बरसी का मायरा, गीत गोविंद टीका, राग गोविंद और राग सोरण नामक चार ग्रंथों की रचना भी की।

इसके अलावा मीराबाई के गीतों को मीराबाई की पदावली नामक ग्रंथ में इकट्ठा किया गया है। उनके कई पद राजस्थानी मिली हुई भाषा और कई पूरी तरह ब्रजभाषा में हैं। यह उनका कृष्ण–प्रेम ही था कि कवयित्री न होने के बावजूद उन्होंने इतने पद रचे। मीराबाई को युगों-युगों तक कृष्ण भगवान् का सबसे बड़ा भक्त माना जाता रहेगा।

Essay on Meera Bai in Hindi 700 Words

प्रेम-दीवानी मीराबाई का जन्म सन् 1504 के आसपास राजस्थान में हुआ था। वह बाल्यकाल से ही एकांत-प्रिय थीं और कृष्ण की मनोहर छवि में डूबी रहती थी। उनका जीवन प्रायः एकांतिक ही रहा। हिन्दी साहित्य कोश में उनके बारे में लिखा गया है – ”मीरा का जीवन दु:खों की छाया में ही व्यतीत हुआ था। बाल्यावस्था में ही उनकी माता का देहान्त हो गया। उनकी देख-रेख पितामह दूदा ने ही की। वह परम वैष्णव थे। उनकी भावनाओं का प्रभाव मीरा पर भी पड़ा। दूदा की मृत्यु होने पर उनके ज्येष्ठ पुत्र वीरमदेव ने मीरा का व्याह किया। विवाह के कुछ ही वर्षों बाद सम्भवतः सन् 1523 में मीरा के पति भोजराज की मृत्यु हो गयी। सन् 1527 में उनके पिता रतनसिंह भी खानवा के युद्ध में मारे गये। इसी के आस-पास उनके श्वसुर राणा सांगा का भी देहान्त हो गया। सन् 1539 में भोजराज के छोटे भाई रतनसिंह की भी मृत्यु हो गयी और मेवाड़ का शासन उनके सौतेले भाई विक्रमादित्य के हाथ में आ गया। इसी तरह भौतिक जीवन से निराश मीरा का झुकाव गिरिधर गोपाल के प्रति बढ़ता गया। उनके दिन सन्तों और भक्तों के स्वागत में व्यतीत होने लगे। राजा को यह सब असह्य हो गया और उन्होंने अनेक प्रकार से मीरा को पीड़ित करना आरम्भ कर दिया।” किन्तु इस वियोगिनी नारी को अपने आराध्य श्रीकृष्ण की भक्ति करने से कोई नहीं रोक सका। इनकी मधुर कविता स्वर लहरियों का आधार लेकर लगातार नि:शृत होती रही। उनकी कविता की मूल संवेदना प्रधानतः वेदनापूर्ण और दुखात्मक अन्तर्वस्तु को लिए हुए है। निम्नलिखित काव्य-पंक्तियाँ मीरा के हृदय में व्याप्त गहन पीड़ा को पूर्णत: स्पष्ट और उजागर करने की क्षमता रखती हैं।

जग मुहाग मिथ्या री सजनी हावा हो मिट जासी
वरन करया हरि अविनाशी म्हारों काल व्याल न खासी

मीरा की कविता एक गहरी वेदना को लिए हुए है। उनकी वेदना मूलत: प्रेम से संबंधित है। इस बात की जानकारी आपको भी होगी कि मीरा का दाम्पत्य जीवन कोई लम्बा और सुखद नहीं था। उनके जीवन में सांसारिक संबंधों की रागात्मकता का गहरा अभाव रहा है। उन्हें न तो वह मधुर वात्सल्य सुख प्राप्त हुआ जो हर पुत्र-पुत्री को अपने बाल्यकाल में सहज ही प्राप्त होता हैं, और न वह दाम्पत्य सुख, जिसकी तीव्र आकांक्षा प्रत्येक स्त्री-पुरुष की होती है। किन्तु ऐसा लगता है मानों मीरा को इन सभी सांसारिक सुखों और आनन्दपूर्ण स्थितियों की कोई जरूरत अपने लिए थी ही नहीं। उन्हें तो वह सनातन प्रिय और पति मिल गया था, जिसे न तो कभी मृत्यु का भय था और न कभी दुर्भाग्य का, वह चिर और सनातन था। उपर्युक्त पंक्तियों में मीरा ने भी यही भाव व्यक्त किए हैं। उस पति का क्या लाभ जो किसी भी क्षण मिट जाने वाला हो, अथवा जिसका जीवन स्वयं में क्षणभंगुर और अनिश्चित सा हो। अतः मीरा को तो एक ऐसा प्रिय चाहिए, जिसका सहचर्य जीवन-मरण की बाधाओं से पूर्णत: मुक्त और स्वतंत्र हो। उसके साथ दाम्पत्य-सुख चिर काल तक गतिवान बना रहे।

इसी आकांक्षित प्रिय का वियोग मीरा को सताए जा रहा है। इसी विरह की दारुण अवस्था में मीरा गा उठती हैं:

बिरहनी बावरी सी भई
ऊँची चढ़ि अपने भवन में टेरत हाय दई
ले उँचरा मुख आँसुवन पोंछत उघरे गात सही
मीरा के प्रभु गिरधर नागर बिछुप्त कछु न कही।

इस विरहाग्नि का कोई पैमाना नहीं। यह विरह अवस्था इतनी पवित्र और पावन है कि इसे श्रृंगार कहना एक पापकर्म ही होगा। और ऐसा कहने वाला पापी भी कहलाएगा।

डॉ. नगेन्द्र ने मीरा के बारे में एक स्थान पर ठीक ही लिखा है।

“मीराबाई का काव्य उनके हृदय से निकले सहज प्रेमोच्छ्वास का साकार रूप है। उनकी वृत्ति एकान्ततः और समग्रतः प्रेम-माधुरी में ही भरी हुई है।… कृष्ण प्रेम में मतवाली मीरा ने मन ही मन उनके मधुर मिलन के स्वप्न संजोकर तज्जन्य आनन्द की भी अनेक रूप से व्यंजना की है, किन्तु उनकी कविता का प्रमुख रस विप्रलम्भ है।”

मीरा का हृदय भव्यता और विराटता से भरा हुआ है। आज मीरा का काव्य हमें स्त्री-मन की निगुढ़ताओं का स्मरण कराता है। इस दृष्टि से उनके काव्य का हमारे लिए सांस्कृतिक स्तर पर अप्रतिम महत्व है।

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दोहा/पद :

मन रे परसी हरी के चरण सुभाग शीतल कमल कोमल त्रिविध ज्वालाहरणजिन चरण ध्रुव अटल किन्ही रख अपनी शरणजिन चरण ब्रह्माण भेद्यो नख शिखा सिर धरण जिन चरण प्रभु परसी लीन्हे करी गौतम करणजिन चरण फनी नाग नाथ्यो गोप लीला करणजिन चरण गोबर्धन धर्यो गर्व माधव हरण दासी मीरा लाल गिरीधर आगम तारण तारण मीरा मगन भाई लिसतें तो मीरा मगनभाई।

हिंदी अर्थ :

मीरा का मन सदैव कृष्ण के चरणों में लीन हैं। ऐसे कृष्ण जिनका मन शीतल हैं। जिनके चरणों में ध्रुव हैं। जिनके चरणों में पूरा ब्रह्माण हैं पृथ्वी हैं। जिनके चरणों में शेष नाग हैं। जिन्होंने गोबर धन को उठ लिया था। ये दासी मीरा का मन उसी हरी के चरणों, उनकी लीलाओं में लगा हुआ हैं।

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