Essay on Progressivism in Hindi प्रगतिवाद पर निबंध

Read an essay on Progressivism in Hindi language for students who have interest in social reforms. Now more about progressivism in Hindi. प्रगतिवाद पर निबंध।

Essay on Progressivism in Hindi 500 Words

hindiinhindi Essay on Progressivism in Hindi

Essay on Progressivism in Hindi

भारतीय समाज और साहित्य में वर्ष 1930 के आस-पास का समय बहुत ही महत्वपूर्ण रहा है। इस समय मार्कस्वादी विचारधारा और दृष्टिकोण, साहित्य और समाज में सक्रिय होने लगता है। हिन्दी का प्रगतिवादी साहित्य वस्तुतः इसी विचारणा से प्रेरित होकर लिखा गया साहित्य है। डॉ नगेन्द्र ने लिखा है: “प्रगतिवादी काव्य की संज्ञा इस काव्य को दी गयी, जो छायावाद के समाप्ति काल में 1936 के आस-पास से सामाजिक चेतना को लेकर निर्मित होना आरम्भ हुआ। यह नाम उस काव्य धारा का है जो मार्क्सवादी दर्शन के आलोक में सामाजिक चेतना और भावबोध को अपना लक्ष्य बना कर चली।” यहां यह बात स्पष्ट हो जाती है कि प्रगतिवादी काव्य-धारा एक पुष्ट और ठोस वैचारिक धरातल को लेकर चलने वाली काव्य धारा रही है। इसी काव्य-धारा अथवा माक्र्सवादी-विचारधारा का प्रभाव पंत के परवर्ती काव्य पर भी पड़ा था और उन्होंने अपने काव्य में इसकी मार्मिक अभिव्यक्ति भी की थी।

प्रगतिवादी साहित्य एक नये सौन्दर्य-बोध और जीवन-दर्शन को प्रस्तुत करने वाला काव्यआंदोलन रहा है। डॉ नगेन्द्र ने लिखा है: ‘‘प्रगतिवाद ने सौन्दर्य को नये दृष्टिकोण से देखा। वह वर्तमान जन-जीवन में सौन्दर्य खोजता है। सौन्दर्य का संबंध हमारे हार्दिक आवेगों और मानसिक चेतना दोनों से होता है। इन दोनों का संबंध सामाजिक संबंधों में होता है। यथाः

आज नदी बिलकुल उदास थी
सोयी थी अपने पानी में,
उसके दर्पण पर
बादल का वस्त्र जड़ा था
मैंने उसको नहीं जगाया
दबे पाँव वापस घर आया।

केदार नाथ अग्रवाल की ये उपर्युक्त काव्य पंक्तियाँ पाठक को एक नये प्रकार के सौंदर्य का बोध कराते हुए उसे अपने पवित्र आकर्षण में बाँध लेती हैं। प्रगतिवादी साहित्य सौन्दर्य-सृष्टि के संदर्भ में आधुनिक काव्य-क्षेत्र में अपना अप्रतिम महत्व रखता है। इस संदर्भ में नागार्जुन की निम्नोक्त पंक्तियाँ इसी संदर्भ में द्रष्टव्य है:

शुरू-शुरू कातिक में
निशा रोज ओस की बंदियों से लदी है।
अगहनी धान थी युद्धी कंजरियाँ
पाकर परस प्रभाती किरणों का
मुखर हो उठेगा इनका अभिराम रूप
रहलने निकला हूँ परमान के किनारे-किनारे
बढ़ता जा रहा हूँ खेत की मेड़ों पर से आगे
वापस मिला है अपना वह बचपन
कई युगों के बाद आज
करेगा मेरा स्वागत

प्रगतिवादी साहित्य एक ठोस सामाजिक चेतना पर अवलम्बित साहित्य है। इसमें गहरी समाज-चेतना विद्यमान है। यह समाज को विषमता युक्त करके उसे समाजवाद की ओर ले जाना चाहता है। यह काव्य गरीब, किसानों और मजदूरों आदि को वाणी प्रदान करता है। यथाः

बहुजन समाज की अनुपम प्रगति के निमित्त
संकुचित एवं की आपाधापी के निषेधार्थ
अविवेकी भीड़ की भेड़िया धसान के खिलाफ
अंध बधिर व्यक्तियों को सही राह बतलाने के लिए।

गतिवादी काव्य बहुजन समाज को अपना आलंबन बनाता है। वह सुख-समृद्धि को सारे समाज तक पहुँचाना चाहता है। वस्तुत: प्रगतिवादी काव्यधारा सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक शोषण के खिलाफ सामाजिक न्याय का साहित्य है।

Essay on Progressivism in Hindi 600 Words

हिन्दी साहित्य – प्रगतिवाद

समय का निरंतर गतिशील चक्र और परिवर्तित परिस्थितियाँ जिस तरह जीवन-समाज के व्यवहारों को प्रभावित किया करती हैं, उसी तरह साहित्य भी उनसे प्रभावित होता है। वास्तव में जीवन-समाज के परिवर्तन मूल्यों-मानों से सामग्री और प्रभाव ग्रहण करके ही काव्य अथवा साहित्य अपने आत्मा और शरीर का रूपायन करता है। सो समय पाकर जैसे पुरानी परंपराओं, विचारों रीति-रिवाजों और मूल्यों-मानों के स्थान पर आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की मदद से जैसे सभी कुछ नए विकास और प्रगति के तत्वों को ग्रहण करने लगा; वैसा ही काव्य तथा अन्य विधाओं के क्षेत्र में भी हुआ। छायावादी-रहस्यवादी चेतना क्रमश: विलुप्त और क्षीण होती गई। उसके स्थान पर व्यावहारिक जीवन की वास्तविकता की भावनाओं से प्रेरित होकर जो साहित्य रचा जाने लगा, इतिहास में उसे प्रगतिवादी साहित्य अथवा काव्य कहा जाता है और उसके प्रेरक द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी को प्रगतिवादी का उन्मेषक माना जाता है।

वास्तव में प्रगतिवाद का जन्म छायावाद की कोख से ही हुआ था। जब कवियों-लेखकों ने सन 1936 ई। के आस-पास से मानव-प्रगति का गायन करना शुरू कर दिया, तभी एक नई चेतना के रुप में प्रगतिवाद का आरम्भ हो गया। इसी कारण शोषण-पीडित मानव को अधिकारों का बोध कराने के लिए उस सब का गायन, नव विकसित वैज्ञानिक विकास की ओर, भौतिक एवं बौद्धिक सत्यों की ओर मानव-मन को आकर्षित-उन्मुख करना प्रगतिवाद की प्रमुख विशेषताएँ और प्रवृत्तियाँ मानी जाती हैं। इससे जीवन-समाज में विकास और प्रगति लाने के लिए क्रान्ति अथवा परिवर्तन को भी बहुत जरूरी माना गया है। इसी ओर जन-मानस का ध्यान आकर्षित करने के लिए कवि वालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ ने कवियों का आह्वान करते हुए स्वर मुखरित किया:

“कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ।
तिस से थल-पुथल मच जाए।”

उस उथल-पुथल के कारण प्रगति-पथ में बाधक बने नियम-उपनियम आदि सभी समाप्त हो जाएँ, जिसके उपरांत एक समतावादी समृद्ध उन्नत सामाजिक जीवन का आरम्भ हो सके तथा शोषित-पीड़ित मानवता की विकास की इच्छा और प्रयत्न को बल मिल सके। मार्क्सवादी विचारधारा को प्रगतिवादी चेतना का मूल आधार सभी स्वीकार करते हैं। राजनीति में जिसे साम्यवाद और सामाजिक क्षेत्रों में समाजवाद कहा गया है, दार्शनिक शब्दावली में जो द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद है; साहित्य के क्षेत्र में उसी को ही प्रगतिवाद कहा गया है। यही कारण है कि उपर्युक्त क्षेत्रों और प्रगतिवाद की प्रवृत्तिगत धारणाओं में पूरी तरह समानता पाई जाती है।

वर्ग-संघर्ष की चेतना को प्रगतिवाद का मूल आधार माना गया है। मुख्यतः भारतीय और विदेशी जीवन में चलने वाले राजनीतिक आन्दोलनों ने इस काव्यधारा और चेतना को विस्तार और विकास का विशेष अवसर प्रदान किया। लेकिन आगे चलकर जीवन-समाज का कोई भी क्षेत्र इसके प्रभावों से अछूता नहीं रह सका। जीवन के आर्थिक क्षेत्र भी बहुत प्रभावित हुए। हर तरह के अन्याय-अत्याचार, शोषण के प्रति आक्रोश का स्वर प्रगतिवादी साहित्य में इसी कारण स्पष्ट सुना जा सकता है। मानव-प्रगति में पूँजीवाद को सर्वाधिक बाधक मानकर पूँजी और श्रम के समान वितरण का नारा लगाना भी प्रगतिवाद का ही काम है। इसका चरम उद्देश्य था हर तरह के भेद-भाव मिटाकर एक वर्गहीन जीवन-समाज की स्थापना करना और मानवीय और मानवता को महत्व दिलवाना।

लेकिन दु:ख के साथ कहना और मानना पड़ता है कि यथार्थ-चित्रण के नाम पर प्रगतिवाद और उसके अन्तर्गत रचा जाने वाला साहित्य अपने मूल उद्देश्य से भटक गया। वास्तविकता के नाम पर वह जीवन की बुराइयों, विद्रपों, अश्लीलताओं का नग्न चित्र भर रह गया। मानवजीवन और समाज में कहीं कुछ मानवीयता, सुन्दरता, अच्छाइयाँ भी हैं अथवा हो सकती हैं: इन तथ्यों को उसने पूर्णतया ओझल कर दिया। फलस्वरूप अन्य पूर्ववर्ती साहित्यिक वादों को जो स्थिति हुआ, वही प्रगतिवाद की भी हुई। वह असमय में ही अपनी मौत स्वयं मर गया।

इसके बावजूद भी इस बात से इनकार नही किया जा सकता कि प्रगतिवादी काव्य के शुरूआती एवं मध्यवर्ती स्वर बड़े सशक्त तरीके से सहज उदात्त मानवीयता, उसके मानों-मूल्यों की उन्नति करने वाला सिद्ध हुआ। उसने कविता को ही नहीं, साहित्य की अन्य विधाओं को भी नया आयाम दिया, नए प्राण और स्वर दिए। इसी कारण उसका महत्व आज भी बना हुआ है।

Essay on Politics in Hindi

Left wing & right wing politics in Hindi

Essay on Religion and Politics in Hindi

Essay on Maharshi Dayanand Saraswati in Hindi

Essay on Democracy essay in Hindi

Thank you for reading. Don’t forget to give us your feedback.

अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए हमारे फेसबुक पेज को लाइक करे।

Add a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *