Yatharthvad in Hindi यथार्थवाद

Read Yatharthvad in Hindi language for students of class 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10, 11 and 12. Know more about Yatharthvad in Hindi. Realism in Hindi is called ‘यथार्थवाद’।

hindiinhindi Yatharthvad in Hindi

Yatharthvad in Hindi

यथार्थवाद बनाम आदर्शवाद

साहित्य जीवन की अभिव्यक्ति होता है। जीवन और साहित्य को देखने, समझने और परखने की प्रधानत: दो मूलभूत दृष्टियां रही हैं आदर्शवादी जीवन दृष्टि और यथार्थवादी जीवन दृष्टि। ‘साहित्य’ का सम्पूर्ण इतिहास आदर्शवाद और यथार्थवाद के सम्मिलन और समायोजन का ही इतिहास रहा है। वस्तुत: ‘यथार्थवाद’ और ‘आदर्शवाद’ दोनों साहित्यिक अवधारणाएं हैं। किन्तु दोनों सामाजिक-जीवन की विविध स्थिति और परिस्थिति से व्युत्पन्न हुई अवधारणाएं हैं।

हिन्दी में ‘यथार्थवाद’ अंग्रेजी के ‘रियलिज्म’ शब्द के अनुवाद रूप में प्रयुक्त होता है। यथार्थ का शाब्दिक अर्थ होता है ‘यथा + अर्थ’ अर्थात् जैसा है वैसा ही अर्थ। डॉ। बच्चन सिंह ने ‘यर्थाथवाद’ के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए लिखा है: ”यथार्थवाद एक दृष्टिकोण भी है, और एक पद्धति भी। जहाँ तक दृष्टिकोण का संबंध है, यह रोमेन्टिसिज्म, मिथकवाद और काल्पनिकता के विरूद्ध पड़ता है। पद्धति के रूप में इसमें चरित्र, स्थिति, क्रियाकलाप आदि का चित्रण दृश्य जगत की जिंदगी के सदृश किया जाता है।” इसी तरह उन्होंने कल्पना का अर्थ ‘रूप देना’ माना और उसे अंग्रेजी के ‘इमेजिनेशन’ का हिन्दी अनुवाद कहा। कल्पना को रूप देने वाली अर्थात् ‘रूप-विधायिनी’ शक्ति कहना एक महत्वपूर्ण संकेत है। यह इस बात का संकेत है कि ‘कल्पना’ उपलब्ध विषय-वस्तु को एक नवीन व्यवस्था प्रदान करके उससे पाठक का भाव–परिष्कार एवं विचार परिष्कार करती है।

‘आदर्शवाद’ और ‘यथार्थवाद’ को लेकर बुद्धिजीवी विद्वान-आलोचकों और रचनाकारों के मध्य एक व्यापक बहस निरंतर चलती रही है। ‘आदर्शवाद’ के समर्थक बुद्धिजीवियों का मानना है कि साहित्य को प्रधानतः आदर्शवादी होना चाहिए। जीवन में, मानव के आस-पास जो भी सुंदर है, शिव है, मंगलकारी और जीवनदायिनी है, हमारे साहित्य को मानव-हित में उसी का सजगता पूर्वक चित्रण करना चाहिए ताकि साधारण मनुष्य अपने दैनिक जीवन में विद्यमान सौन्दर्य को देख सके, उसे महसूस कर सके। इससे पाठक समुदाय में ही नहीं अपितु संपूर्ण समाज में उदात्त सौन्दर्य-बोध और मानवीय मूल्यकी समझ विकसित होता है। आदर्शवादी साहित्य समाज में मूल्य-शिक्षण का कार्य संपन्न करता है। इस साहित्य की यह भूमिका उसकी सामाजिक प्रासंगिकता को स्वयं ही मुखर कर देती है। इसी के साथ साहित्य में यथार्थवाद का पक्ष-समर्थन करने वाले बुद्धिजीवी मानव समाज को व्यापक, विस्तृत और परस्पर अनुकूल-प्रतिकूल स्थितियों का पुंज मानते हुए, साहित्य में उसकी संपूर्ण अभिव्यक्ति को जरूरी मानते हैं, न कि केवल जगत् के किसी पक्ष या अंग की एकांगी अभिव्यक्ति को। यथार्थवादी, साहित्य को सामाजिक परिवर्तन की व्यापक भूमिका से जोड़कर देखा जाता हैं। अत: उनुका स्पष्ट मत है कि परिर्वतन की भूमिका को तभी गतिशील किया जा सकता है, जब हम समाज के सौन्दर्यपूर्ण पक्ष के साथ-साथ उसके अ-सौन्दर्यपूर्ण, और विसंगतिपूर्ण पक्ष को भी समझे। अतः अनैतिकता, संवेदनहीनता, भ्रष्टाचार, चरित्रहीनता और अमनवीयता जैसी सामाजिक विकृतियों को निश्चित रूप से साहित्यिक अभिव्यक्ति मिलनी चाहिए, ताकि निरंतर रोगग्रस्त होते समाज को उसकी इस भयावह रोगग्रस्तता से अवगत कराया जा सके। अपनी बीमारी की जानकारी ही उसे उचित निदान के लिए गतिशील करती है।

वस्तुत: आदर्शवाद और यथार्थवाद, परस्पर विपरीत मान्ताएँ हैं। उनकी उचित मूल्यवता, उनके परस्पर सम्मिलन में निहित है। हांलाकि ‘यथार्थवादी’ बुद्धिजीवियों की यह बात पूर्णत: सत्य प्रतीत होती है कि साहित्य समाज को उसकी ‘रोगग्रस्तता’ से परिचित कराता है। किंतु समाज स्वयं को इस रोगग्रस्तता से मुक्त कैसे कर सकता है? यह एक स्वाभाविक सत्य है कि ज्ञान मात्र से समस्या का निदान नहीं होता, क्योंकि ज्ञान इस स्थिति में समस्या से परिचित कराने भर का काम करता है। समस्या के सटीक निदान के लिए, समस्या को निदान की एक आदर्श दिशा की कल्पना आवश्यक होगी। जीवन-मूल्यों की स्थापना ही वस्तुत: आदर्शवाद है और इन जीवन-आदर्शों के मूल में गतिशील स्थितियों ओर परिस्थितियों की ज्ञानात्मक मीमांसा ही वस्तुतः यथार्थवाद।

साहित्य का स्वीकार्य उद्देश्य प्राचीन समय से ही मानव समाज को शिव, सुंदर और पूर्ण बनाने का रहा है। हमारा विचार है कि साहित्य अपनी इस शाश्वत भूमिका का निर्वाह आदर्श और यथार्थ का समुचित सम्मिलन करके ही कर सकता है। हिन्दी के प्रतिष्ठित उपन्यासकार प्रेमचंद ने साहित्य की इस महनीयता को पूर्णत: समझ लिया था। यही कारण है कि उन्होंने किसी एक पक्ष पर बल न देकर ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’ पर बल दिया। अर्थात् एक ऐसा यथार्थ जो आदर्श की ओर उन्मुख होता है। वस्तुतः समकालीन साहित्य की अनिवार्यता भी यही है।

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