Parishram Ka Mahatva Essay in Hindi परिश्रम का महत्व पर निबंध

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Parishram Ka Mahatva Essay in Hindi 300 Words

परिश्रम का महत्व पर निबंध

मनुष्य के जीवन में परिश्रम का बहुत महत्व होता है। परिश्रम मानव जीवन का वह हथियार है जिसके बल पर वह भारी से भारी संकटों पर भी जीत हासिल कर सकता है। मनुष्य परिश्रम करके अपने जीवन की हर समस्या से छुटकारा पा सकता है। विश्व में कोई भी कार्य बिना परिश्रम के सफल या संपन्न नहीं हो सकता। इसलिए ऐसा कहा गया है कि परिश्रम ही सफलता की कुंजी है। वह व्यक्ति जो परिश्रम से दूर रहता है वह सदैव दुःखी और दूसरों पर निर्भर रहने वाला होता है।

जीवन की दौड़ में परिश्रम करनेवाला हमेशा विजयी होता है लेकिन आलसी लोगों को हमेशा हर जगह पर हार का मुँह देखना पड़ता है। ऐसा कोई भी कार्य नहीं है जो परिश्रम से सफल न हो। इसलिए हमें परिश्रमशील और कर्मठ बनना चाहिए। परिश्रम करके हम अपने भाग्य को भी बदल सकते हैं। श्रम से ही उन्नति और विकास का मार्ग खुल सकता है।

जीवन में कुछ लोग केवल अपने भाग्य पर निर्भर होते हैं। ऐसे लोग परिश्रम की जगह भाग्य को बहुत अधिक महत्व देते हैं। वे लोग यह समझते हैं कि जो हमारे भाग्य में होगा वह हमें अवश्य मिलेगा। लेकिन उन्हें यह नहीं पता होता है कि भाग्य के भरोसे रहना जीवन में आलस्य को जन्म देता है और आलस्य मनुष्य के जीवन लिए एक अभिशाप है, जो उन्हें परिश्रम करने से हमेशा रोकता रहता है। इसलिए हमें भाग्य के भरोसे न रहकर कठिन परिश्रम करके जीवन में सफलता रास्ता चुनना चाहिए। परिश्रम से कोई भी व्यक्ति अपने भाग्य को बदल सकता है।

जो व्यक्ति परिश्रमी होते हैं वे चरित्रवान, ईमानदार और स्वावलम्बी होते हैं। मजदूर भी परिश्रम से ही संसार के लिए उपयोगी वस्तुओं का निर्माण करता है। वह संसार के लिए सड़क, भवन, मशीन और बाँध (डैम) इत्यादि का निर्माण करता है। अगर हम अपने जीवन, अपने देश और राष्ट्र की उन्नति देखना चाहते हैं तो हम सभी को भाग्य पर निर्भर रहना छोडकर परिश्रमी बनना होगा। सच्ची लगन और निरंतर परिश्रम से सफलता हमें अवश्य मिलती है। निरंतर परिश्रम करने वाला व्यक्ति कोई भी क्षेत्र में आसानी से सफलता पा सकता है। जीवन में सफलता पाने के लिए लगन और कठिन परिश्रम अति आवश्यक है।

परिश्रम का महत्व पर निबंध 700 Words

श्रम ही जीवन का मूल है

किसी ने ठीक ही लिखा है:
“श्रम ही सों सब मिलत है, बिनु श्रम मिलै न काहि।”

संसार की समस्त उँचाइयों, उपलब्ध्यिों और शिखरों को आदमी अपने सतत् श्रम से ही प्राप्त करता है। बिना अथक श्रम के इनकी उपलब्धि की कल्पना भी नहीं की जा सकती। सारा मानव-इतिहास, मानवीय श्रम का ही इतिहास है। जो भी आज हमें दिखलायी पड़ता है या फिर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से हमें प्राप्त होता है उसी के द्वारा वह सब कुछ अर्जित किया गया है।

श्रम ही मानवीय-जीवन का सार है। भृतहरि ने इस शाश्वत सत्य की अभिव्यक्ति निम्नोक्त पंक्तियों में की है।

“उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मी: दैवे न देशमिति का पुरुषाः वदन्ति।
दैवं निहत्य कुरूपौरुषमात्मशक्त्या, यत्ने कृते यदि न सिद्धमति कोत्र दोष॥”

अर्थात् लक्ष्मी उसी पुरुष को प्राप्त होती है, जो उद्योगी या परिश्रमी होता है। हर वस्तु की प्राप्ति की आकांक्षा वे ही करते है जो कायर ओर श्रमहीन होते हैं। सफलता श्रम पर ही निर्भर करती है। यदि श्रम के बाद भी किसी विशेष कार्य में हमें सफलता की प्राप्ति नहीं होती, तब दु:खी और कुण्ठित होने के स्थान पर यह विचारना चाहिए कि उस कार्य की प्रक्रिया में वांछित श्रम करने से चूक कहाँ हुई है। भर्तृहरि की उपरोक्त पंक्तियाँ हमें निश्चित रूप से यह अवबोधित कराती है कि मानव-जीवन की निरन्तरता में एक ही शाश्वत वस्तु है, जिसे श्रम कहा जाता है। ऐसा नहीं है कि श्रम की यह वास्तविकता मात्र मानव-जगत की ही विशेषता है, श्रम की वास्तविकता समस्त गोचर जगत में परिलक्षित होती है। इस प्रसंग में एक साधारण जीव चींटी का उदाहरण लिया जा सकता है। हम सभी ने प्रायः इस तथ्य का अनुभव किया है कि एक साधारण सी, अतिसामान्य सी चींटी निरन्तर, बिना थके, अपने काम में लगी रहती है। वह अपनी शारीरिक क्षमता से बहुत ज्यादा काम प्रतिदिन सम्पन्न करती है। यह वैज्ञानिक सत्य भी है। इसी तरह जब हम पशु-पक्षियों को देखते हैं तो उन्हें भी श्रमयुक्त देख पाते हैं। वस्तुतः समस्त प्रकृति ही किसी न किसी रूप में सदैव श्रमशील रहती है। यही उसकी जीवटता और सजीवता का कारण और परिणाम है। अर्थात् वास्तविकता यही है कि श्रम की साधना करने वाले कभी भी असफल नहीं होते। वे सदैव उच्च शिखर का संधान करते हैं।

जैसा कि हम जानते हैं, मानव सभ्यता का विकास उसके अथक श्रम का परिणाम है। आज भी अपने कठोर श्रम का उपयोग अपनी सभ्यता को नये-नये रूपों में विकसित करने के लिए कर रहा है। वह इसके लिए किसी दैवीय चमत्कार की आशा नहीं रखता। एक अंग्रेजी कहावत इस बात को बेहद प्रमाणिक रूप से अभिव्यक्त करती है: ‘God helps those who help themselves’ यानि ईश्वर भी उन्ही की सहायता करता है जो स्वयं अपनी मदद करना जानते हैं।

मनुष्य ने परिचित, अपरिचित, ज्ञात और अज्ञात प्रकृति को अपने श्रम के द्वारा ही अपने अनुकूल बनाया है। उसने अनेकानेक रूपों में, मानव हित में, प्रकृति का उपयोग संभव किया। है। किसी विद्वान ने ठीक ही कहा है कि मानव-सभ्यता का सम्पूर्ण इतिहास मानव और प्रकृति के द्वन्द्व का ही फलित रूप है। प्रकृति की शक्ति किसी से छिपी हुई नहीं है। प्रकृति के अस्तित्व के सामने मनुष्य का अस्तित्व अत्यंत लघु है। किन्तु लघु होते हुए भी उसने अपने श्रम बल के माध्यम से प्रकृति को अपने अनुकूल बनाया और अपने हितार्थ उसका बहुआयामी उपयोग भी किया है।

भारतीय संस्कृति श्रम और कर्म की ही संस्कृति है। ‘गीता’ कर्मवाद का सिद्धांत प्रस्तुत करने वाला भारतीय संस्कृति का एक पवित्र ग्रंथ है। श्रीकृष्ण का यह गीता-उपदेश प्राचीन समय से ही समस्त मानव जाति को किसी न किसी रूप से सदैव गतिशील करता आया है। यथा:

“माम् अनुस्मर युद्धय च”

अर्थात जीवन में निरन्तर संघर्ष करो, युद्ध करो ताकि सफलता पा सको। श्री कृष्ण का यह आप्तवाक्य श्रम की सार्वभौम-महत्ता को उद्घाटित और रेखांकित करता है।

श्रम जीवन को सम्पूर्णता और समृद्धि प्रदान करता है। वह मनुष्य को समय का सदुपयोग करते हुए अपने जीवन के साथ-साथ अपने देश और समाज से हर प्रकार की अभावग्रस्तता को दूर कराने का प्रबल साधन बनता है। श्रम मनुष्य के आंतरिक और वाह्य खालीपन को भरता है, उसकी हर प्रकार की जरुरतों को पूरा करता है। अतः अपने व्यापक अर्थ में श्रम मनुष्य जाति के विकास और सार्थक होने का एकमात्र विराट साधन है। इसीलिए, किसी विद्वान कवि ने श्रम को एक कठोर साधना कहते हुए ठीक ही लिखा है।

“जितने कष्ट संकटों में हैं, जिनका जीवन सुमन खिला।
गौरव-ग्रन्थ उन्हें उतना ही, यत्र-तत्र, सर्वत्र मिला।”

परिश्रम का महत्व पर निबंध 800 Words

जीवन में परिश्रम ही सब कुछ है। बिना परिश्रम जीवन व्यर्थ और नि:स्सार है। संसार में जो कुछ स्थाई, श्रेष्ठ, महान् और हितकारी है, वह हमारे अथक परिश्रम का ही फल है। हमारी इतनी समृद्ध संस्कृति, सभ्यता और वैज्ञानिक विकास सभी कुछ इस परिश्रम की ही देन है। हमारे चाँद पर पहुँचने, एवरेस्ट पर विजय पाने, संचार क्रांति आदि सभी के पीछे परिश्रम खड़ा दिखाई देता है। पुरुषार्थ को ही लक्ष्मी और सरस्वती जैसी देवियाँ अपनी वरमाला पहनाती हैं। सफलता उद्यमी और कर्मवीर का ही वरण करती हैं। कर्मयोग के द्वारा ही सिद्धियाँ, मोक्ष और स्वर्ग प्राप्त किये जा सकते हैं। कर्महीन व्यक्ति नपुसंक होते हैं। वे पृथ्वी पर भार होते हैं और मानवता के लिए अभिशाप भी।

श्रम ही सफलता और सुख की सीढ़ी है। यही वह कुंजी है जिससे समृद्धि, श्रेय, यश और महानता के खजाने खोले जा सकते हैं। इतिहास और हमारा सारा जीवन ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है। इब्राहम लिंकन, महाकवि कालिदास, तुलसीदास, लालबहादुर शास्त्री, नेपोलियन बोनापार्ट, महात्मा गाँधी; मदर टेरेसा आदि के उदाहरण हम ले सकते हैं। इन सभी व्यक्तियों ने अपने खून-पसीने और श्रम से ही महानता प्राप्त की।

यह सभी श्रेष्ठता के उच्चतम शिखर तक पहुंचे इतिहास रचा और अमर हो गये। लिंकन का जन्म एक अत्यन्त निर्धन किसान परिवार में हुआ था। उसका परिवार एक लकड़ी की झोंपड़ी में रहता था। जब वह नौ वर्ष का था तभी उसकी माता का देहांत हो गया। उसे खेत और घर पर कठोर परिश्रम करना पड़ता था और वह शिक्षा प्राप्त करने के लिए स्कूल नहीं जा सकता था। उसने डाकिये के पद पर काम किया और वहां जो समाचार-पत्र आदि आते थे उन्हें उनके पतों पर पहुंचाने से पहले लिंकन उन्हें जल्दी से स्वयं पढ़ लेता था। उसने लोगों से पुस्तकें पढ़ी और इस तरह विद्या का अध्ययन किया। अपनी गहरी लग्न, अथक परिश्रम और पुरुषार्थ से लिंकन निरन्तर आगे ही आगे बढ़ता रहा और अपनी मेहनत के बलबूते अमेरिका जैसे शक्तिशाली देश का महान् राष्ट्रपति बना।

हमारी सभ्यता, संस्कृति, आर्थिक और वैज्ञानिक समृद्धि के मूल आधार ये ही स्त्री-पुरुष हैं। इन्हीं कर्मवीरों के हम सचमुच ऋणी हैं। उदाहरण के लिए हम कालिदास के जीवन को ले सकते हैं। शुरु-शुरु में कालिदास बिल्कुल मूर्ख था। वह इतना मूर्ख था कि जिस डाली पर बैठा हुआ था, उसी को काट रहा था। कुछ लोगों ने चालाकी से उसका विवाह प्रतिभा सम्पन्न राजकुमारी विद्योत्तमा से करवा दिया। जब विद्योत्तमा को सच्चाई का पता चला तो उसने दु:ख से अपना सिर पीट लिया और कालिदास को घर से निकाल दिया।

इस अपमान, निरादर और ताड़ना से कालिदास तड़प उठा, उसकी नींद खुल गई। वह काशी चला गया और वहां संस्कृति का अध्ययन किया, काव्य-सृजन सीखा और प्रकांड पंडित होकर अवंती लौटा। उसकी प्रखर प्रतिभा को देखकर विद्योतमा और दूसरे सभी दरबारी लोग आश्चर्यचकित रह गये। कालिदास ने अपने अथक और निरन्तर परिश्रम से वह कर दिखाया जो असंभव था। महामूर्ख से महापंडित की यह यात्रा परिश्रम का एक अद्भुत वस्तुपाठ है। हमें इससे शिक्षा लेनी चाहिये। इसका अनुसरण करना चाहिये तथा कर्मयोग को अपनाना चाहिये।

परिश्रम के अभाव में प्रतिभा का भी कोई महत्त्व नहीं। प्रतिभाशाली व्यक्ति को भी कड़े परिश्रम और पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है। सफलता में यदि 10 प्रतिशत भाग प्रतिभा का मान लिया जाए तो 90 प्रतिशत भाग परिश्रम के ही खाते में जाता है। सच्चाई तो यह है कि श्रम का कोई विकल्प नहीं। श्रम का ही दूसरा नाम श्रेष्ठता, सफलता और महानता है। परिश्रम की पहुंच से बाहर कुछ भी नहीं, न स्वर्ग, न मोक्ष, न सफलता, न श्रेष्ठता और न ही महानता। हीरा अमूल्य होता है। यह प्रकृति की एक अनुपम देन है। राजा-महाराजाओं के ताज इससे सुशोभित होते हैं। विश्व की सुन्दरतम नारियों का श्रृंगार बनता है। देवताओं का इससे अलंकरण किया जाता है। परन्तु हीरा मूलतः एक अनगढ़ पत्थर का टुकड़ा ही होता है। कारीगर अपने कठोर परिश्रम से कांट-छांट कर उसे हीरे का रूप देता है। उसे अपने श्रम और पसीने से चमकाता है। इस कठोर परिश्रम के पश्चात् ही हीरे का वास्तविक मूल्य और उपयोगिता प्रकट होती है।

मनुष्य अपनी नियति और भाग्य का स्वयं निर्माता है। नियति कभी पूर्वनिर्धारित या निश्चित नहीं होती। ग्रह-नक्षत्र हमारे भाग्यविधाता नहीं होते। हमारे पूर्व जन्मों के कर्म फल ही हमें भाग्य के रूप में दिखाई देते हैं। हम स्वयं ही अपने मित्र या शत्रु हैं। हमारे कर्म ही हमारी नियति निश्चित करते हैं। यह सारा संसार और इसके कार्य व्यापार कर्म प्रधान हैं। कर्मवीर अपने भाग्य का स्वयं निर्माण करते हैं।

मनुष्य का कर्म पर ही अधिकार है, उसके फल पर नहीं। मनुष्य स्वभाव से ही कर्मशील है। हमें कठोर परिश्रम करना चाहिये। काम से जी चुराना हमें शोभा नहीं देता। आलसी विद्यार्थी असफल रहते हैं और जीवन में कभी कुछ अच्छा नहीं कर पाते। इसके विपरीत परिश्रमी छात्र सफल होते हैं। वे पुरस्कार प्राप्त करते हैं और अपने विद्यालय का नाम रोशन करते हैं और जीवन में ऊँचे तथा महत्त्वपूर्ण पद प्राप्त करते हैं। कर्महीन और आलसी व्यक्ति ही भाग्य की दुहाई देते हैं। वे वस्तुओं और स्थितियों में दोष निकालते हैं और अपने दुर्भाग्य का रोना रोते हैं।

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