Essay on River in Hindi नदी पर निबंध

Read an essay on River in Hindi language. Know more about rivers in India and how to write an essay on river in Hindi. आज हम लिख रहे है नदी पर निबंध। ये निबंद आप को भारत की सब नदियों के बारे में बताएगा। ये निबंद स्कूल में सभी जमातों में पूछा जाता है।

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Essay on River in Hindi

नदी पर निबंध

“गंगेच यमुने चैव गोदावरि! सरस्वति!
नर्मदे सिंधु कावेरी जलेडिस्मन सन्निधि कुरु॥”

भगवान की नित्य पूजा करते समय इस श्लोक के माध्यम से हम भारतवासी भारत की सभी नदियों को अपने छोटे से कलश में आकर बैठने की प्रार्थना, करते हैं।

मनुष्य सृष्टि के आरंभ से ही प्रकृति का पुजारी रहा है। पेड़-पौधों से लेकर सागर, सरिता, चाँद, सूरज तक समस्त प्राकृतिक रचनाओं के प्रति हम अपना श्रद्धा सुमन अर्पित करते रहे है। भगवान की तरह उनकी भी पूजा करते आये हैं। यही हमारी सांस्कृतिक अध्यात्मिक पहचान है। ऐसा नहीं की आध्यात्मिक भारत विकास के रास्ते में चलते हुए विज्ञान की क्षेत्र में तनी सारी सफलताओं को चुनने के बाद अपनी आध्यात्मिकता को भूल गया है। बल्कि विज्ञान से लेकर साहित्य, इतिहास तक के हर क्षेत्र में भारत की आध्यात्मिकता की पहचान आज भी बनी हुई है। इस संदर्भ में चाहे प्रकृति की पूजा हो या नदी की चर्चा, किसी की भी बात हो, जैसे इतिहास इनकी सत्यता का साक्षी है वैसे साहित्य उस सत्यता की बहती धारा है। उसी तरह विज्ञान भी अपने परीक्षण के जरिए वैसी सत्यता के महत्व को और भी बढ़ाता रहा है। इनमें साहित्य ही है जो प्रकृति और जीवन को एक-दूसरे के साथ जोड़ने की क्षमता रखता है। ‘प्रकृति से अलग जीवन, या जीवन से दूर प्रकृति असंभव ही है: ‘इस सत्यता को हम प्रकृति की बहुत बड़ी देन, इस नदी की हर बहाव में ही ढूंढ़ सकते हैं। यूँ कहें कि नदी के धार से ही हम जीवन की धारा को समझ सकते हैं। सिर्फ नित्य पूजा के वक्त ही नहीं बल्कि पाप धोकर बिगड़े जीवन में परिवर्तन लाने के लिए भी मनुष्य नदी में ही जाता है और कमर तक पानी में खड़ा होकर संकल्प करता है । तब जाकर उसको विश्वास होता है कि उसका पाप धुल गया है, और अब उसका संकल्प पूरा होकर उसके जीवन में सुख और समृद्धि लाने वाला है।

“जीवन के हर पहलू को समझना हमें नदी ही सिखाती है। इस बात का प्रमाण हमारा साहित्य है। वेदकाल के ऋषियों से लेकर व्यास, वाल्मीकि, शुककालिदास, भवभूति, क्षेमेन्द्र, जगन्नाथ तक संस्कृत के किसी भी कवि को लेंगे तो हमें यही देखने को मिलेगा कि नदी को देखते ही उनकी प्रतिभा भी पूरे वेग से प्रवाहित होने लगती है। कवि, रचनाकार और साहित्यकार- ये तो रहे भावुकता और आवेग के स्रोत। लेकिन हम साधारण मनुष्य भी नदी को देखते ही मन में यह विचार ले आते हैं कि यह नदी आती कहाँ से और जाती कहाँ तक है? यह विचार या सवाल सनातन है। नदी का आदि और अन्त तो होना ही चाहिए। नदी को जितनी बार हम देखते हैं मन में उतनी ही बार यह सवाल उठता है। और यह सवाल जितना पुराना होता जा रहा है उतना अधिक गंभीर और अधिक बनता जाता है, मन एकाग्र होकर प्रेरणा देता है और पैर चलने लगते है, आदि और अन्त को ढूंढ़ने के लिए। लेकिन जीवन की तरह नदी की कोई आदि और अन्त नहीं होता। जीवन की आने-जाने की लीला शून्य में से अनन्त तक है जिसे हम सनातन लीला कहते हैं। जैसा हम जानते हैं शून्य और अनन्त, दोनों अमर हैं। इस संदर्भ में कालेलकर ने कहा है: “जीवन के प्रतीक के सामन नदी कहां से आती है और कहाँ तक जाती है? शून्य से आती है और अनन्त में समा जाती है। शून्य यानी अत्यल्प, सूक्ष्म, किन्तु प्रबल, और अनन्त का अर्थ है विशाल और शांत। शून्य और अनन्त दोनों एक से गूढ़ है। दोनों अमर हैं, दोनों एक ही हैं। शून्य में से अनन्त- इस प्रकार यह सनातन लीला है।”

नदी और जीवन के संदर्भ में चर्चा करते समय मन में यह सवाल जरुर ही आ जाता है। कि क्या जीवन नदी के प्रवाह के समान है? काका कालेलकर ने पुण्य सरिताओं के संस्मरण पर लिखी अपनी पुस्तक का नाम ‘जीवन लीला’ रखा। उन्होंने पुस्तक के प्रारंभ में लिखा है: “अपने संस्कृत कवियों के नदी वर्णन और और स्रोतों पर मैं मुग्ध हैं। इनमें सबसे अधिक भक्ति ही नजर आती है। उनका शब्द लालित्य असाधारण होता है। भाषा-प्रवाह मानों नदी के प्रवाह के साथ होड़ करता है।” वह सरिता-संस्कृति की व्याख्या इस तरह करते हैं: “जो भूमि केवल वर्षा के पानी से ही सींची जाती है उसे ‘देव मातृक’ कहते हैं। और जो भूमि नदी के पानी से सींची जाती है उसे ‘नदी मातृक’ कहते हैं। अर्थात् वह नदी को माता कहते हैं। इसलिए हमारे मन में आये विचार जीवन-प्रवाह भी नदी-प्रवाह की तरह हैं।

इसमें सवाल की कोई गुंजाईश ही नहीं। जीवन में बहुत सारे उतार-चढ़ाव आते हैं, आशा निराशा के क्षण आते हैं और इस उतार-चढ़ाव से हम थक कर, हारकर, परेशान होकर, जीवन से निराश होने लगते हैं। ठीक उसी तरह नदी में भी उतार-चढ़ाव आते हैं। कभी उस पर बांध बनाए जाते हैं, तो कभी उसमें बाढ़ आ जाती हैं। नदी न तो निराश होती है और न ही रुकती है। वह उतार-चढ़ाव, बांध या किसी बाधा की बिल्कुल भी परवाह नहीं करती। बल्कि उन्हें पूरी शक्ति से तोड़कर आगे बढ़ती चली जाती है। या यूँ कहें कि नदी की गति ही उसकी शक्ति होती है और मार्ग में आने वाली बाधाएं उसकी शक्ति को, गति को और बढ़ा देती हैं।

हम मानव भी तो अपना जीवन इसी तरह जीते हैं भले ही कितनी रुकावटें, कितने दु:ख, निराशा आते हैं और चले जाते हैं। लेकिन उस दु:ख और निराशाओं के अन्दर भी आशा और उम्मीदों की किरणों को ढूंढ़ते हुए हम आगे की तरफ बढ़ते रहते हैं। यही हमारी जीवन-गति और प्रवाह है और यह प्रवाह हमेशा ऐसा ही रहनी चाहिए, जो नदी सिखाती है। निराश होकर रुक जाने की बजाय आशाओं की सितारों केचुनते हुए चलते रहना ही जीवन प्रवाह की सच्ची सार्थकता है।

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